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(५७) सेन हैं जो सेनगणके विद्वानोंमें प्रमुख थे। इन्होंने सुशीला रानी विट्ठल. देवीके सुपुत्र 'कामीराय' के लिए इस ग्रन्थकी रचना की थी, जो 'राय' इस नामसे प्रसिद्ध थे । ग्रन्थमें रस रीति और अलंकार आदिका सुन्दर विवेचन किया गया है और वह तीन परिच्छेदोंमें समाप्त हश्रा है। ग्रन्थकर्ताने ग्रन्थमें उसका रचना काल नहीं दिया। चूंकि अजितसेन नामके अनेक विद्वान् प्राचार्य हो गये हैं। उनमें यह किसके शिष्य थे यह कुछ ज्ञात नहीं होता।
६८वीं प्रशस्ति 'शंखदेवाष्टक' की है, जिसके कर्ता भानुकीर्ति हैं। जिन-चरणोंके भ्रमर मुनिचन्द्रके शिष्य राजेन्द्रचन्द्र थे। इससे मालूम होता है कि भानुकीर्ति भी मुनिचन्द्र के शिष्य थे । प्रशस्तिमें गुरुपरम्परा व समयादिकका कोई वर्णन नहीं दिया, जिससे उस पर विचार किया जाता।
६९वीं प्रशस्ति तत्त्वार्थसूत्रकी 'सुखबोधवृत्ति की है, जिसके कर्ता पं० योगदेव हैं, जो कुम्भनगरके निवासी थे । यह नगर कनारा (Kanara) जिले में हैं। पं० योगदेव भुजबली भीमदेवके द्वारा राज मान्य थे । वहाँ की राज्य सभामें भी आपको उचित सम्मान प्राप्त था । ग्रन्थकर्ताने प्रशस्तिमें अपनी गुरुपरम्परा और ग्रन्थका रचनाकाल नहीं दिया । अन्य साधनोंसे भी इस समय इनका समय निश्चित करना शक्य नहीं है।
७०वीं प्रशस्ति 'विषापहारस्तोत्र टीका' की है, जिसके कर्ता नागचन्द्रसूरि है। जो मूलसंघ, देशोगण, पुस्तकगच्छ और पनशोकावलीके अलंकार रूप थे। तौलबदेश और विदेशोंको पवित्र करने वाले भट्टारक ललितकीर्तिके प्रधान शिष्य देवचन्द्र मुनीन्द्र के शिष्य थे और ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न हुये थे । इनका गोत्र श्रीवत्स था । पिताका नाम 'पार्श्वनाथ' और माताका नाम 'गुमटाम्बा' देवो था । नागचन्द्रसूरि कर्नाटक आदि देशोंमें प्रसिद्ध थे, और उन्हें 'प्रवादिगज केसरी' नामका विरुद भी प्राप्त था। वे कविमदके विदारक सदृष्टि थे। इन्होंने बागडदेशमें प्रसिद्ध भट्टारक ज्ञानभूषणके द्वारा बार-बार प्रेरित होकर ही 'गुरु वचन अलंध्यनीय हैं। ऐसा