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(४३) ६१वीं प्रशस्ति 'प्रद्युम्न चरित्र' की है, जिसके कर्ता भार्य महासेन हैं जो लाडबागड संघके पूर्णचन्द्र, श्राचार्य जयसेनके प्रशिष्य और गुणकरसेन सूरिके शिष्य थे। प्राचार्य महासेन सिद्धान्तज्ञ, वादी, वाग्मी और कवि थे, तथा शब्दरूपी ब्रह्मक विचित्र धाम थे। यशस्वियों द्वारा मान्य और सजनोंमें अग्रणी, एवं पाप रहित थे, और परमार वंशी राजा मुजके द्वारा पूजित थे। ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपकी सीमा स्वरूप थे और भव्यरूपी कमलोंके विकसित करने वाले बांधव थेसूर्य थे-तथा सिंधुराजक महामात्य श्री पर्यटके द्वारा जिनके चरण कमल पूजित थे। और उन्हींके अनुरोधसे इस ग्रन्थकी रचना हुई है। ___ महासेनसूरिका समय विक्रमकी ११वीं शताब्दीका मध्य भाग है। क्योंकि राजा मुंजक दो दान पत्र वि० सं० १०३१ और वि० सं० १०३६ के प्राप्त हुए है । प्राचार्य श्रमितगतिनं इन्हीं मुझदेवके राज्यकाल वि० सं० १०५० में पौष सुदी पंचमीके दिन 'सुभाषितरत्नसन्दोह' की रचना पूर्णकी है। इससे मुंजका राज्य सं० १०३१ से १०५० तक तो सुनिश्चित ही है
और कितने समय रहा यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता। पर यह ज्ञात होता है कि तेलपदवने सं० १०५० और १०५५ के मध्यवर्ती किसी समयमें मुञ्जका वध किया था। चूंकि ग्रन्थकर्ता महासेन मुञ्ज द्वारा पूजित थे। अतएव यह ग्रंथ भी उन्हींके राज्यकालमें रचा गया है। अर्थात् यह ग्रन्थ विक्रमकी ११वीं शताब्दीके मध्य समय की रचना है।।
६२वों प्रशस्ति 'त्रिपंचाशक्रियाव्रतोद्यापन' की है, जिसके कर्ता भ. देवेन्द्रकीर्ति हैं। देवेन्द्रकीर्ति नामके अनेक भट्टारक हो गए हैं। परन्तु यह उन सबसे भिन्न प्रतीत होते हैं। क्योंकि इन्होंने अपना परिचय निम्नरूपमें दिया है । इनका कुल अग्रवाल था। यह राज्य मान्य भी थे। इन्होंने वि० सं० १६४४ में उक्त ग्रन्थकी रचना की है।
१ श्रीसिन्धुराजस्य महत्तमेन श्रीपर्पटेनाचिंतपादपद्मः । चकार तेनाभिहितः प्रबंधंस पावनं निष्ठितमङ्गजस्य ॥१॥