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४७वीं प्रशस्ति 'चन्द्रप्रभचरित्र' की है, जिसके कर्ता कवि दामोदर हैं, जो भट्टारक धर्मचन्द्रके शिष्य थे । कवि दामोदरने उक्त प्रन्थकी रचना - सम्वत् १७२७ में महाराष्ट्र ग्रामके श्रादिनाथ भवनमें निवास करते हुए चार हज़ार श्लोकोंमें की है ।
४८वीं प्रशस्ति 'ज्ञानार्णवगद्य-टीका' की है, जिसके कर्ता देशयति ब्रह्मश्रुतसागर हैं । इनका परिचय, १०वें नं० की प्रशस्ति में दिया गया है ।
४६वीं और है२वीं प्रशस्तियाँ 'सम्मेदशिखर माहात्म्य' और 'स्वर्णाचलमाहात्म्य' की हैं जिनके कर्ता कवि देवदत्तजी दीक्षित हैं, जो कान्यकुब्ज ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुए थे और जो भदौरिया राजाओं के राज्यमें स्थित टेर नामक नगरके निवासी थे । इन्होंने भट्टारक जिनेन्द्रभूषणकी श्रज्ञासे 'सम्मेदशिखरमाहात्म्य' और 'स्वर्णाचलमाहात्म्य' ( वर्तमान सोनागिरिक्षेत्रका माहाम्य) इन दोनों ग्रन्थोंकी रचना की है। भट्टारक जिनेन्द्रभूषण शौरीपुरके निवासी थे, जो जैनियोंके बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथकी पवित्र जन्मभूमि थी । शौरीपुरसे पश्चिममें जमुना नदी बहती है । भट्टारक जिनेन्द्रभूषण ब्रह्म हर्षमागरके पुत्र थे, जो भट्टारक विश्वभूषण उत्तराधिकारी थे । कवि देवदत्तने उक्त दोनों ग्रन्थोंको रचना कब की इसका कोई उल्लेख प्रशस्तियोंमें नहीं पाया जाता; फिर भी ये दोनों रचनाएँ १६वीं शताब्दीके प्रारम्भकी जान पड़ती हैं; क्योंकि मैनपुरी ( मुहकमगंज ) के दिगम्बर जैन पञ्चायती मन्दिरके यन्त्रोंकी जो प्रशस्तियाँ बाबू कामताप्रसादजीने जैन सिद्धान्तभास्कर भाग २ की किरया ३ में प्रकाशित की हैं उनसे स्पष्ट मालूम होता है कि भट्टारक जिनेन्द्रभूषण
टेरकी गद्दी भट्टारक थे और वे भ० विश्वभूषणके पट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले भ० लक्ष्मीभूषणजीके पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे। यह षोडशकारणयन्त्र संवत् १८२८ मिती भादव कृष्णा पंचमी शुक्रवारका उत्कीर्ण किया हुआ है। और इससे पूर्ववाला यंत्र सम्वत् १७३१ का है उस समय तक लक्ष्मीभूषण भ० पद पर आसीन नहीं हुए थे, वे १७६१ और १८२८ के मध्यवर्ती किसी सरायमें भ० पद पर प्रतिष्ठित हुए हैं । ऐसी स्थितिमें