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(३०) हैं, जो कुन्द कुन्दान्वयमें प्रसिद्ध नन्दिसंघ और बलात्कारगणक भट्टारक विजयकोर्तिके शिष्य और भट्टारक ज्ञानभूषणके प्रशिष्य थे। भट्टारक शुभचंद्र १६वीं १७वीं शताब्दीके विद्वान थे। इन्होंने अनेक देशोंमें विहारकर धर्मोपदेशादि द्वारा जगतका भारी कल्याण किया है । यह अपने समयके प्रसिद्ध भट्टारक थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है, जिनका उल्लेख ग्रन्थकर्ताने अपने पांडवपुराणकी प्रशस्तिमें स्वयं कर दिया है । पांडवपुराणकी रचना श्रीपाल वर्णीकी सहायतासे वि० सं० १६०८में वाग्वर (बागड) देशक शाकलाटपुर (सागवाड़ा ) के प्रादिनाथ जिनालयमें हुई है। उससे पूर्व वे जीवंधरचरित ( मं० १६०३ में) चन्दनाचरित, अंगप्रज्ञप्ति, पार्श्वनाथकाव्य-पंजिका, चन्द्रप्रभचरित, मंशयवदनविदारण, म्वरूप सम्बोधन वृगि, प्राकृतव्याकरण, अपशब्द खंडन, स्तोत्र, ( तर्कग्रन्थ ) नन्दीश्वरकथा, कर्मदाह-विधि, चिन्तामणि पूजा, पल्योपमउद्यापन विधि और श्रेणिकचरित इन ग्रन्थोंकी रचना कर चुके थे । संवत् १५७३में इन्होंने प्राचार्य अमृतचन्द्रक समयमार कलशों पर अध्यात्मतरंगिणी नामकी एक टीका लिम्बी थी। पाण्डवपुराणकी रचनाके बाद संवत् १६११में करकण्डुचरितकी रचना और मंवत् १६१३में स्वामिकार्तिकयानुप्रेक्षाकी संस्कृत टीका वर्णी क्षेमचन्द्रकी प्रार्थनासे रची गई है।
इससे स्पष्ट है कि भ० शुभचन्द्रका समय सोलहवीं शताब्दीका उत्रगर्ध और १७वीं शताब्दीका पूर्वार्ध रहा है; क्योंकि सं० १५७३से १६१३ तक रचनाएँ पाई जाती हैं। हां, भ० शुभचन्द्र के जीवन-परिचय और उनके अवसानका कोई इति वृरा उपलब्ध नहीं है। पर इतना सुनिश्चित है कि वे अपने समयके योग्य विद्वान और साहित्यकार थे। इन्होंने भट्टारक श्री. भूषणके अनुरोधसे प्राचार्य वादिराजके पार्श्वनाथकाव्यकी पंजिका टीका लिखी थी। इनके भी कितने ही शिष्य थे पर उनकी निश्चित गणना ज्ञात नहीं हो सकी है । इसीसे उनका नामोल्लेख नहीं किया गया।
३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, और ४० नं. की प्रशस्तियाँ चंद्रप्रभचरित, पार्श्वनाथकाव्य-पंजिका, श्रेणिकचरित्र, पांडवपुराण,