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(२८) थे। इनका समय विक्रमकी १६ वीं शताब्दी है भ० जिनेन्द्रभूषणके शिप्य रत्नसागरने सं० १८७५ में पंचपरमेष्ठीकी पूजा लिखी थी और इन्हीं के शिष्य भ० महेन्द्रभूषणने सं० १८७५ में 'जयकुमारचरित' लिखा था । संभवत: यह वटेश्वर (शोरीपुर) के भट्टारक थे। इनके द्वारा कितने ही स्थानोंमें (इटावा, वटेश्वर, रूरा श्रादिमें) मंदिर बनवाए गए हैं। इनके शिष्य सुमतिकीर्ति द्वारा सं० १८३६ में प्रतिष्ठित भगवान पार्श्वनाथकी एक मूर्ति जो शौरीपुर वटेश्वरमें प्रतिष्ठित हुई थी इटावाके पंसारी टोलाके जैनमन्दिर में विद्यमान है।
२७वों प्रशस्ति अनंतजिनव्रतपूजा की और ५७वीं प्रशस्ति मौन व्रतकथा की हैं, इन दोनोंके रचयिता भहारक गुणचन्द्र हैं, जो मूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगणके भट्टारक रत्नकीर्तिके प्रशिष्य और रत्नकोतिके द्वारा दीक्षित यशः कीर्तिक शिष्य थे। प्रस्तुत ग्रन्थ भ० गुणचन्द्रने वाग्वर (बागड़) देशके मागवाडाके निवासी हुमड़ वंशी सेठ हरग्वचन्द दुर्गादासकी प्रेरणासे उनके बतक उद्यापनार्थ सं० १६३३ में वहाँ के आदिनाथ चैत्यालयमें बना कर समाप्त की है। मौनव्रतकथा भी इन्हींकी बनाई हुई है। इनके सिवाय पूजा और उद्यापनके और भी अनेक ग्रन्थ इनके द्वारा बनाये हुए बतलाए जाने हैं । पर वे ग्रन्थ इस समय सामने न होनेसे इस सम्बन्धमें यहाँ अधिक कुछ नहीं लिखा जा सका।
२८वों और २६ वीं प्रशस्तियाँ क्रमशः 'पद्मपुराण और हरिवंश पुराण' की हैं, जिनके रचयिता भट्टारक धर्मकीर्ति हैं, जो मूलसंघ सरस्वती गच्छ और बलात्कारगणके विद्वान् भट्टारक ललितकीर्तिके शिष्य थे। इन्होंने श्राचार्य रविषेणके पद्मचरितको देखकर उक्त 'पद्मपुराण' ग्रन्थकी रचना वि. सं० १६६ हमें मालव देशमें श्रावण महीनेकी तृतिया शनिवारके दिन पूर्ण की थी। और अपना हरिवंशपुराण मालवामें संवत् १६७१के आश्विन कृष्णा पंचमी रविवारके दिन पूर्ण किया था । इससे भहारक धर्मकीर्ति विक्रमकी १: शताब्दीके उत्तरार्धक विद्वान् हैं । ग्रन्थकर्ताने ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों में अपनी गुरुपरम्पराका तो उल्लेख किया है । किन्तु शिष्यादिका