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वीरसेनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि वे वादिवृंदारक, लोकवित, afa और वामी थे इतना ही नहीं; किन्तु उन्हें श्रुतकेवलितुल्य भी बतलाया है, उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक प्रज्ञाका अवलोकनकर मनीषियों को सर्वज्ञकी सत्ता में कोई सन्देह नहीं रहा था । धवला टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिमें उन्हें सिद्धान्त छन्द ज्योतिष व्याकरण और प्रमाणशास्त्रों में निपुण बतलाया है। साथ ही यह भी सूचित किया है कि सिद्धांत सागरके पवित्र जलमें धोई हुई शुद्धबुद्धि व प्रत्येकबुद्धोंके साथ स्पर्धा करते थे । श्राचार्य जिनसेनके शिष्य गुणभने उनकी देहको ज्ञान और चारित्रकी अनुपम सामग्री से निर्मित बतलाया है २ । इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य वीरसेन असाधारण प्रज्ञाके धनी, कविचक्रवर्ती कुशल टीकाकार और विविध विषयोंक प्रकाण्ड विद्वान थे । धवला टीका उनके विशाल पाडित्य और बहुश्रुतताका फल है । वह कितनी प्रमेय बहुल है और सूत्ररूप गंभीर विवेचनाको कितने साक्षप्त रूपमे प्रस्तुत करती है और सचमुच में कैसी सूत्रार्थ दर्शिनी है यह अध्येताजन भलीभांति जानते है । प्राकृत और संस्कृत मिश्रित भाषा भी उनकी बडी ही प्राजल और मधुर प्रतीत होती है । तपश्चर्या और ज्ञानसाधना के साथ-साथ उनकी अनुपम साहित्य सेवाने उन्हें और उनकी कृतियोको अमर बना दिया है ।
१- प्राहुः प्रस्फुरद बोधदीधितिप्रसरोदयं । श्रुतकेवलिनं प्राज्ञा. प्रज्ञाश्रमण सत्तमम् ॥ यस्य नैसर्गिक प्रज्ञां दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीं । जाताः सर्वज्ञसद्भावे निरारेका मनीषिणः ॥ प्रसिद्ध सिद्धसिद्धांतवार्धिवाधतशुद्धधीः । सार्धं प्रत्येकबुद्धयः स्पर्धते धीद्धबुद्धिभिः ॥
२ - ज्ञानचारित्रसामग्रीम ग्रहीदिव विग्रहम् । विराजते विधातु यो विनेयानामनुग्रहम् ॥
-जयधवला
--उत्तरपुराण प्रशस्ति