________________
४२ )
[ जैनधर्म-मीमांसा कोई मुनि या गृहस्थ देखता है, कि वह ऐसे उपद्रव या बीमारी आदि में फंस गया है या जरावस्था के कारण वह अपने को और दूसरों को दुःख का कारण बन रहा है और इसका प्रतीकार कुछ नहीं रहा है, तब वह किसी सौम्यविधि से प्राणत्याग करता है । यदि किसी को इस प्रकार मरने में कष्ट मालूम होता हो तो उसका प्राणत्याग करना निरर्थक है ।. जब प्राणत्याग जीवन की अपेक्षा श्रेयस्कर मालूम हो, तभी करना चाहिये । ऐसे प्राणत्याग में सहायक होना भी अनुचित नहीं है । परन्तु यह कार्य होना चाहिये प्राणत्याग करनेवाले की इच्छा के अनुसार । अपने आप तो इस प्रकार का प्रस्ताव रखना भी अनचित है, बल्कि अगर वह स्वयं इच्छा प्रदर्शित करे, तो एक दो बार मना भी करना चाहिये । फिर जब यह अच्छी तरह निर्णय हो जाय कि वास्तव में इसकी इच्छा है, यह लोकलज्जा आदि से ऐसा नहीं कह रहा है, और इसकी अवस्था भी प्राणत्याग करने के लायक है तब उसके इस कार्य में सहयोग करना चाहिये। समाधिमरण के विषय में आगे कुछ विस्तार से विवेचन किया जायगा।
समाधिमरण की इस प्रक्रिया के लिये ही इस नियम की उपयोगिता नहीं है किन्तु और भी ऐसे अवसर आ सकते हैं जब स्वेच्छापूर्वक प्राणत्याग करने पर भी आत्महत्या का दोष नहीं लगता। जैसे--किसी सती के ऊपर बलात्कार करने के लिये कोई उसका हरण कर ले और वह सती, सतीत्व की रक्षा के लिये नहीं क्योंकि यदि सती की इच्छा न हो तो बलात्कार होने पर भी सतीत्व नष्ट नहीं होता--किन्तु अत्याचारी के अत्याचार को निष्फल बनाने के लिये जिससे कि भविष्य में अत्याचारी अत्याचार से विरत हों, अगर प्राणत्याग करे