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________________ ३६२ (जैनधर्म-मीमांसा अशुद्ध हो जाता है । ऐसे जीव को वेदक सम्यक्त्री कहते हैं, क्योंकि इसमें मोह का कुछ वेदन अनुभव होता . रहता....। औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व में यह मैल नहीं रहता, इसलिये विशुद्धि की दृष्टि से ये वेदक की अपेक्षा कुछ उच्च हैं । औपशमिक सम्यक्त्व बहुत थोड़े समय के लिये होता है और क्षायिक सदा के लिये होता है । यही इन दोनों में अन्तर है।। सत्यसमाज के उदाहरण से इस विषय को कुछ स्पष्ट किया जा सकता है, सत्यप्तमाज के नैष्ठिक सदस्य को औपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्वी कहना चाहिये और पाक्षिक सदस्य को वेदक-सम्यग्दृष्टि । यद्यपि दोनों ही सर्वधर्म-समभावी हैं, परन्तु पाक्षिक को कुछ पुराने नाम का मोह है। पाक्षिक और नैष्ठिक का यह अन्तर स्वरूप की दृष्टि से बतलाया गया है, न कि सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से । क्योंकि कोई व्यक्ति अमुक परिस्थिति के कारण पाक्षिक सदस्य बना हो, या सदस्य ही न बना हो, तो भी वह नैष्ठिक हो सकता है। और परिस्थिति वश नैष्ठिक बननेवाला भी पाक्षिक या अनुमोदक हो सकता है। इसलिये सदस्यों में तरतमभाव न रखकर सिर्फ उसके वास्तविक स्वरूप में तरतमता समझना चाहिये, तथा यह बात भी ध्यान में रखना चाहिये कि सत्यसमाज का सदस्य न होने पर भी कोई व्यक्ति सम्यग्दृष्टि, महात्मा, पूर्ण समभावी बन सकता है । सत्यसमाज की सदस्यता तो सिर्फ इसलिये है कि सुविधापूर्वक संगठित होकर सत्य का प्रचार किया जा सके और उसे जीवन में उतारा जा सके। (५) देशविरति- सम्यग्दर्शन के साथ इसमें देश संयम
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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