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प्रतिमा ]
उन्हें कोई सन्तोषकारक समाधान नहीं मिला, इसलिये उनने - दर्शन-प्रतिमा के भीतर मूलगुणों का भी विधान बना डाला, जैसा मैं पहिले पं० आशाधरजी का उद्धरण देकर कह आया हूँ। और किसी किसी ने तो इस प्रतिमा का नाम ही बदलकर मूलवत' कर दिया है, जैसा कि ऊर सामदेवजी के पाठ में बतलाया गया
यह परिवर्तन उचित होने पर भी यह प्रश्न रहता है कि पहिले से ही इस प्रतिमा का नाम और अर्थ इस प्रकार चारित्रहीन क्यों रक्खा गया ? मुनि बनने के लिये व्रतों का अभ्यास तो ठीक, किन्तु सम्यग्दर्शन के अभ्यास कराने की क्या ज़रूरत थी ! इसका एक ही कारण ध्यान में आता है, वह यह कि जब महात्मा महावीर या पीछे के अन्य किसी आचार्य के पास कोई ऐसा व्यक्ति जिसने जैनधर्भ धारण नहीं किया है-आता था और उनके उपदेश से प्रभावित होकर एकदम मुनि बन जाना चाहता था, तब उसको सम्यग्दर्शन का अभ्यास कराने की भी आवश्यकता होती थी। और प्रारम्भ में तो इसी प्रकार के उम्मेदवारों की संख्या बहुत होती थी, इसलिये वह साधारण विधान बना दिया गया । जब जनसमाज की संख्या बढ़ गई, मुनि बनने के लिये अधिकांश उम्मेदवार जैनसमाज में से ही आने लगे, तब सम्यग्दर्शन के अभ्यास की ज़रूरत न रही और पहिली प्रतिमा में कुछ व्रतों का समावेश किया गया ।
में पहिले कह चुका हूँ कि 'प्रतिमा' चारित्र नहीं, किन्तु चारित्र का अभ्यासक्रम है । जैसे, शिक्षा संस्थाओं में पठनक्रम बनाया जाता है, उसी प्रकार यह अभ्यासक्रम है । पठनक्रम में