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________________ ३३८] [जैनधर्म-मीमांसा शारीरिक विकृति है । परन्तु अन्य कारणों का भी उल्लेख किया जाता है । जैसे-उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वृद्धता आदि । ये कारण पुराने समय की मुनिसंस्था को लक्ष्य में लेकर बताये गये हैं । पुरानी मुनिसंस्था के नियमानुसार उपसर्ग आने पर मुनि को भागना न चाहिये-न बचाव करना चाहिये, इसलिये सल्लेखना ही अनिवार्य है । इसी प्रकार दुर्मिक्ष में मुनि के योग्य निर्दोष आहार नहीं मिल सकता, इसलिये भी उसे प्राण त्याग करना चाहिये । इसी प्रकार अतिवृद्ध हो जाने पर मनुष्य मुनियों के आचार का पूरी तरह पालन नहीं कर सकता, इसलिये आचारहीन होने की अक्षा प्राणत्याग श्रेष्ठ है। पुरानी मुनि संस्था के ये नियम आज बदल दिये गये हैं, इसलिये सल्लेखना के ये कारण भी आवश्यक नहीं कहे जा सकते। परन्तु इनके भीतर जो दृष्टि-है वह आज भी उपयोगी है । पुरान समय के उपसर्ग, दुर्भिक्ष आदि को हम सल्लखना के लिये पर्याप्त कारण माने या न मानें, परन्तु इसमें एक बात अवश्य है कि जब मनुष्य दुनिया के लिये भारभूत हो जावे तो स्वेच्छा से साविक रीति से मत्यु स्वीकार करे तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है। मनुष्य को भारभूत होने की कोशिश न करना चाहिये, किन्तु जब उसके ऊपर प्राकृतिक या पर-प्राणिकृत ऐसी विपत्तियाँ आ जाय कि वह न तो अपना ही कल्याण कर सके, न जगत् का कल्याण कर सके, तो समाधि-मरण उचित है । यह आत्म-हत्या नहीं है। समाधि-मरण आत्महत्या नहीं है, इसके विषय में जैना
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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