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[जैनधर्म-मीमांसा
होकर वह हमारे ऊपर या हमारी पत्नी या बहिन के ऊपर आक्रमण करता है उस समय उसका विरोध करना और विरोध करने में उसका वध करना अनिवार्य हो तो उसका वह वध करे या न करे ? यदि वह अत्याचारी हमारा धन ले जाय या पत्नी या बहिन पर अत्याचार कर जाय तो भी हम सब जीवित तो रहेंगे इसलिये इसलिये स्वासोच्छ्वास के समान उसका विरोध करना अनिवार्य तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह भी ठीक है कि यदि उसका वध न किया जाय तो वह पाप की सफलता से उन्मत्त होकर सेकडें । जीवनों को बर्बाद करेगा ।
मतलब यह कि ऐसे बहुत से कार्य हैं, जिनको हमें जगत्कल्याणकी दृष्टि से करना चाहिये, भले ही वे स्वासोच्छवास के समान अनिवार्य न हों इसलिये यह प्रश्न फिर खड़ा हो जाता है कि जो कार्य अनिवार्य नहीं हैं, उन कार्यों में से किसको उचित और किसको अनुचित कहा जाय ?
यदि यह कहा जाय कि स्वासोच्छ्वास आदि ही नहीं किन्तु जिस किसी हिंसा की हमें आवश्यकता हो वह सब हिंसा विधेय है, अगर उसके बिना हमारी प्राणरक्षा न हो सकती हो; परन्तु इस नियम के अनुसार घर से घोर हिंसक भी अहिंसक सिद्ध किया जा सकेगा। सिंहादिक हिंसक पशु अपने जीवन की रक्षा के लिये ही गाय आदि पशुओं की हिंसा करते हैं, इसलिये वे भी अहिंसक ही कहलाये । इतना ही नहीं, दुर्भिक्ष आदि के समय भी खाने को न रहे तो ऐसी हालत में उसे दूसरे प्राणी को ही
यदि मनुष्य के पास कुछ
नहीं किन्तु मनुष्य को भी खा जाने का हक प्राप्त हो जायगा ।
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