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[जैनधर्म-मीमांसा । अपनी ही गुज़र न कर सकता हो, बेकार हो तो उसे छूट है, परन्तु इस छूट का जरा भी दुरुपयोग न हो, इस विषय में सावधानी - रखना चाहिए।
(७) जिन देशों में अन्न या शाक मिल सकता है-वहाँ के लिये यह अत्यावश्यक मूलगुण है : मांस-भोजन हिंसा का उग्र रूप है, इसलिये उसका त्याग करना चाहिये । भारतवर्ष या इसी के समान अन्य देशों के लिये यह एक आवश्यक मूलगुण है । हाँ, उत्तर ध्रुव के आसपास के प्रदेश अथवा और भी ऐसे स्थानों के लिये जहाँ जीवन-निर्वाहयोग्य अन्न पैदा ही नहीं होता, वहाँ के लिये इस मूलगुण को शिथिल बनाना पड़ेगा | उसका शिथिल रूप कैसा हो, यह बात वहाँ की परिस्थिति के ऊपर निर्भर है। उदाहरणार्थ, जलचरों की छूट देकर स्थलचर और नभचरें। का त्याग किया जा सकता है, क्योंकि जलचरों की अपेक्षा स्थल-, चर और नभचर अधिक विकसित प्राणी है । इसी तरह से और भी विचार करना चाहिये । ऐसे देशों के लिये इस मूल-गुण का नाम मांस-मर्यादा होगा।
(८) मद्य-त्याग भी आवश्यक है, क्योंकि मद्यपायी का जीवन अनुत्तरदायी तथा पागल के समान हो जाता है। हाँ, औषध के लिये मद्य-बिन्दु का सेवन करना पड़े तो इससे मूल गुण का भंग नहीं होता । तथा जिन शीतप्रधान देशों में दूध और चाय की तरह मद्यपान किया जाता है, वहाँ अगर इसका त्याग न हो सके तो भी मर्यादा बना लेना चाहिये और इतनी शराब कभी न पीना चाहिये जिससे मनुष्य भान भूलकर पागल सरीखा