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________________ ३१.] [जैनधर्म-मीमांसा की इच्छा करना, इसी के अनुसार घटनाओं पर विचार करना , अपध्यान है । ध्यान करने से किसी का हानि लाम तो हो नहीं जाता, इसलिये वह निरर्थक तो है ही, और पाप रूप है, इसलिये अनर्थदंड कहलाया । न्याय या न्यायी के जय और अन्याय या अन्यायी के पराजय के विचार अपध्यान नहीं है । जैसे राम-गवण के युद्ध में राम की जय और रावण के पराजय के विचार अपध्यान. रूप नहीं हैं । साधारणतः राग-द्वेष के विचारों से अपने को मुक्त रखना चाहिये, परन्तु न्यायरक्षण और अन्याय का नाश दुनिया की भलाई के लिये आवश्यक है, इसलिये वैसा विचार अपध्यान नहीं है। प्रमादचर्या-निरर्थक जमीन खोदना, अग्नि जलाना आदि प्रमादचर्य नामक अनर्थदंड है । बहुत से लेखकों ने वायु-सेवन आदि को भी प्रमादचर्या बतला दिया है, परन्तु यह ठीक नहीं है। स्वास्थ्य तथा मनोविनोद के लिये मात्रा के भीतर कुछ काम किये जायें तो वह प्रमादर्या नहीं है। दुःश्रति-ऐसी बातों का सुनना या पढ़ना जिससे मन में विकार तो पैदा होते हैं, किन्तु न तो मानसिक उन्नति होती है, न कोई दूसरा लाभ होता है, दुःश्रुति है । संशोधन के लिये या अध्ययन के लिये पढ़ना दुःश्रुति नहीं है । बहुत से लेखकों ने दुसरे सम्प्रदायों के ग्रन्थ पढ़ने को भी दुःश्रुति कहा है । यह साम्प्रदायिक संकुचितता अनुचित है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इस दुःश्रुति नामक अपध्यान का
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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