________________
गृहस्थ-धर्म ] उसे लकड़ी मार देते हैं । इससे न तो इन्द्रियों की सन्तुष्टि है और न कोई स्वास्थ्य वगैरह का लाभ है, इसलिये यह अनर्थदण्ड है। ऐसी वृत्ति का त्याग होना चाहिये ।
यद्यपि हमारे द्वारा छोटी-छोटी प्रवृत्तियाँ इस प्रकार की होती रहती हैं कि उनके बिना भी हमारा काम चल सकता है, परन्तु अनिच्छा से वे हो जाती हैं । जैसे, एक मनुष्य खड़े-खड़े पैर हिला रहा है, उङ्गली चला रहा है । उसका यह काम निरर्थक है । फिर भी ऐसे छोटे-छोटे कामों को अनर्थ नहीं कहना चाहिये, क्योंकि ये शरीर की स्वाभाविक क्रिया के समान अनिच्छा से होते
इसी प्रकार कभी कभी मनोविनोद के लिये भी हमें ऐसा काम करना पड़ता है। जो कि बाहिरी दृष्टि से आवश्यक नहीं मालूम होता. उसे भी अनर्थदण्ड में न रखना चाहिये । इस प्रकार की बातों पर विचार करने के बाद भी यह कहना उचित है कि अनर्थ दंड-विरति एक ब्रत है। इस व्रत की उपयोगिता यह है कि हम अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति के फलाफल पर विचार करना सीखें, और जिन प्रवृत्तियों से हानि के बदले लाभ कम हो, पुण्य की अपेक्षा पाप अधिक हो, उनका त्याग करें। अहिंसादि ब्रतों के वर्णन में जो हिंसा आदि के अपवाद बताये गये हैं उनका दुरुपयोग न हो जाय इसके लिये यह अनर्थदंड विरति है । इस प्रकार नतों का संरक्षक होने से यह व्रत शील-रूप है, शिक्षात्रत है।
अनर्थदण्ड-विरति में जिन जिन अनर्थों के त्याग करने का विधान है-उनको पाँच भागों में विभक्त किया गया है। पापोपदेश,