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[ जैनधर्म मीमांसा शङ्का- अगर हम कर्मफल को मानते हैं तो हमें करुणादान क्यों करना चाहिये ? प्राणी अपने पाप का फल भोगते हैं। वह उन्हें भोगना चाहिये । उन्हें उस से छुड़ाने का प्रयत्न करने वाले हम कौन !
समाथान-इस प्रकार का विचार हमें दूसरों के लिये ही न करना चाहिये, किन्तु अपने कुटुम्बियों और अपने लिए भी करना चाहिए । अपना पुत्र जब बीमार पड़े तो उसकी चिकित्सा सेवा न करना चाहिए यहाँ तक कि जब हम स्वयं बीमार पड़ें तब निरोग होने की चेष्टा न करना चाहिए । चलते चलते गिर पड़ें तो उठना भी न चाहिए अन्यथा कर्मफल में बाधा आयगी । अगर अपने लिये हम इतनी उदारता का उपयोग नहीं करते तो दूसरे के लिए भी उस का उपयोग न करें, इसी में हमारी सच्चाई है ।
दूसरी बात यह है कि हमारे और दूसरे के भाग्य में क्या है-यह हमें दिखाई नहीं देता । इधर कर्म भी अपना कार्य करने के लिये नोकर्म ( बाह्य निमित्तों) की अपेक्षा रखता है । इसलिए सम्भव है कि उसका शुभ कर्म उदय में हो जिससे वह विपत्ति से छुटकारा पानेवाला हो, परन्तु किसी बाह्य निमित्त की ज़रूरत हो । वह हमें जुटा देना चाहिए । सहायक का संयोग भी, तो उस के शुभ कर्म की निशानी है।
तीसरी बात यह है कि मनुष्य में दैव की प्रधानता नहीं है, किन्तु पुरुषार्थ की प्रधानता है। देव अपना काम करे, परन्तु हमें भी अपना काम करना चाहिए । देव को हम नहीं जान सकते, न वह हमारे हाथ । में है हमारे हाथ