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________________ २८६] [जैनधर्म-मीमांसा इस में पात्र की पूजा की जाती है । इस के लिये चरण धोने आदि की प्रणाली प्रचलित है । यह है तो अनुचित, परन्तु इसके भीतर एक रहस्य है, वह अवश्य ही ध्यान में और व्यवहार में रखने लायक है। पात्र-दान ऐसे ही लोगों को दिया जाता है जो कि निस्वार्थ समाज सेवक हैं । उनको दान देकर हम उनके ऊपर अहसान नहीं कर रहे हैं-यह बात ध्यान में रहे, इसलिये यह पूजा-अर्चाकी प्रथा है । उसका वर्तमान रूप त्याग करके भी हमें उस का भाव ध्यान में रखना चाहिये, तथा सच्चे समान-सेवकों को अहसान में न दबाकर उनका आदर करना चाहिये तभी उन से लाभ उठाया जा सकता है; अन्यथा सच्च सेवक न तो मिलेंगे और न हम उनसे सच्ची सेवा ले सकेंगे। कदाचित वे हमारी इच्छा के अनुसार काम करेंगे, जैसा कि हम चाहते हैं, परन्तु हित के अनुसार नहीं। करुणादान- दीन-दुःखी मनुष्यको करुणा बुद्धि से दान देना करुणा-दान है । चिकितालय खुलवाना आदि इसी दान के भीतर है । सदावर्त द्वारा गरीबों को भोजन देना भी करुणादान है। परन्तु इसकी अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि उनसे कुछ काम कराया जाय जिससे उनमें दीनता, भिखमंगापन, आलस्य आदि न आने पावे। शंका-अगर किसी देश में काम करनेवाले इतने अधिक हो कि उन्हें काम न मिलता हो, और फिर इन भिक्षुकों से भी काम लिया जाने लगे तब तो वेकारी और बढ़ेगी।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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