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________________ दशधर्म [२८१ अभयदान के बदले में आवासदान भी कहा जाता है। वास्तव में ये दान मुनिसंस्था को लक्ष्य में लेकर कहे गये थे । इसलिये मुनियों को जिन जिन चीजों की जरूरत होती थी उनका नाम लिख दिया गया । परन्तु वास्तव में इसकी उपयोगिता सभी के लिये है, और देश काल के भेद से इस के ढंग में भी परिवर्तन करना आवश्यक है। जैन साहित्य में भी इस प्रकार का संशोधन हुआ है और उस के अनुसार दान के चार भर दूसरे ढंग से किये गये हैं - पात्रदान, करुणादान, समदान, और अन्वयदान । प्रारम्भ के चार दान पात्र-दान में शामिल किये जाते हैं । दान के ये चार भेद पहिले भेदों की ओक्षा अधिक पूर्ण है। पात्रदान- जो लोग सदाचारी हैं, न्यायशील हैं, दुनिया की भलाई के लिये जिनने अपना जीवन लगाया है---उन के सहायता पहुंचाना, उन के जीवन की आवश्यकताएँ पूरी करना पात्र दान है। इसका साम्प्रदायिक अर्थ न करना चाहिये; किन्तु जो भी मनुष्य दुनिया की भलाई के लिये प्रयत्न करता हो और किसी भी ढंग से क्यों न करता हो, उसे सहायता पहुँचाना आवश्यक है। हाँ, सच्चे पात्र को पहिचानने के लिये विवेककी ज़रूरत तो है ही, साप ही उसके कार्योकी उपयोगिता का भी विचार करना पड़ेगा। पहिले ब्राह्मणों को इस प्रकार का दान दिया जाता था और आज भी दिया जाता है, परन्तु अब ब्राह्मण कुलोत्पन्न को दिया जाता है, भले ही वह ब्राह्मग हो या न हो । आर ब्राह्मग
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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