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________________ २७० ] [जैनधर्म-मीमांसा और ढोंगी वेषधारी के आगे अन्धश्रद्धा या समाज भय से झुकनेबलि भी बहुत है परन्तु इन कुवृत्तियों पर विजय प्राप्त करके सच्चे समाज सेवकों के आगे सिर झुकाना वास्तविक विनय हैं । यह एक तप है । मनुष्य की पूजा उसकी समाज सेवा तथा उसके लिये उपयोगी स्वार्थ त्याग से है । अमुक स्थान पर शिष्टाचार के रूपमें हम अधिकारी आदि के साथ नम्रता का व्यवहार कर सकते हैं परन्तु उसे जीवन की बाहिरी चीज़ समझना चाहिये | आत्मा का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है । वास्तव में वह विनय नहीं है। प वास्तव में यह उपचार विनय, ज्ञान दर्शन चारित्र-विनय है । परन्तु ज्ञान दर्शन चारित्र का मूर्त्तिमान रूप उसको धारण करनेवाला ही है, इसलिये उसका विनय करना चाहिये । इससे अपने में वे गुण उतरते हैं, इस मार्ग पर चलने के लिये दूसरों को उत्तेजना मिलती है । इससे अपना और जगत का कल्याण होता हूँ । वैयावृत्य - वैयावृत्य का अर्थ है सेवा । इसको तप में गिनांकर जैनधर्म ने यह बतला दिया है कि जनधर्म का तप कोरा कष्टसहन नहीं है, प्रेमहीन नहीं है, अक्रियात्मक नहीं हैं। दूसरों की सेवा करना भी वास्तव में तप है। तप का विवेचन विशेषतः मुनि संस्था को 'लक्ष्य में लेकर किया गया था, इसलिये वैयावृत्य के पात्रों में नाना मुनियों का ही उल्लेख हुआ है। विवेचन की यह मुख्यता सामयिक है । इसका यह अर्थ न समझना चाहिये कि वैयावृत्य का क्षेत्र मुनि-संस्था में ही संकुचित है। वहाँ संघ की वैयावृत्य का भी उल्लेख हैं जिसमें •
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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