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[जैनधर्म मीमांसा विषय में अपवाद सिर्फ इतना ही बनाया जा सकता है कि किसी समाज-हित के लिये उस अपराध का छुपाना, आवश्यक हो तो छुपाया जाय। उसमें अहंकारका तो लेश भी न आना चाहिये । मायाचार, कायरता आदि भी आत्मशुद्धि में बाधक हैं, इसलिये उनको दूर करने के लिये भी उन दोषों को दूर करना चाहिये । ... पुराने समय की मुनिसंस्था को लक्ष्य में लेकर प्रायश्चित्त के नौ भेद किये गये हैं-आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, उपस्थान । अपने दोष को स्वीकार करना आलोचना है इसकी आवश्यकता जैसी सब थी-वैसी भी है। लगे हुए दोषों पर पश्चात्ताप प्रगट करना, वह मिथ्या हो जाय, इत्यादि कहना यह प्रतिक्रमण है । आलोचन और प्रतिक्रमण ये एक ही तरह के प्रायश्चित्त हैं। प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ है पापसे लौटना । इस दृष्टिसे आलोचन भी प्रतिक्रमण है। परन्तु यहाँ पर प्रतिक्रमण और आलोचन को अलग अलग : कहा है, इससे प्रतिक्रमण को आलोचन से विशेष समझना चाहिये, और स.मा. जिक म्यवहार में प्रतिक्रमण में क्षमायाचना शामिल करना चाहिये। कहीं सिर्फ आलोचना से प्रायश्चित्त होता है, कहीं पर अपराधों की पृथक-पृथक आलोचना न करके सिर्फ क्षमायाचना से काम चल जाता है, और कहीं पर दोनों की आवश्यकता होती हैं। प्रत्येक बात की जुनी-जुदी आलोचना करके जुदी-जुदी क्षमायाचना करना पड़ती है।
जिस विषय में अधिक आसक्ति दो उस विषय को छुड़ादेना विवेक है। अमुक समय के लिये ध्यान आसन-लगाना कायोत्सर्ग