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[ जैनधर्म-मीमांसा
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ष्णुता का अभ्यास करने के लिये हैं । फिर असली कष्टसहिष्णुता तो मन के ऊपर अवलम्बित है । प्रबल मनोबल होने पर ऐसे लोग भी कष्ट सहन कर लेते हैं-जिनने कभी कष्टों को नहीं सहा । जैनशास्त्रों में ऐसी अनेक कथाएँ आतीं हैं । सुकुमाल कुमार इतना कोमल था कि उसकी बैठक के नीचे एक तिल का दाना आ गया था इससे वह भोजन न कर सका था, परन्तु ऐसा आदमी जब तपस्या करने लगा और गीदड़ी उसे सात दिन तक चाटती रही तब भी वह दृढ़ रहा । इससे मालूम होता है कि असली अभ्यास तो मानसिक है। फिर भी थोड़ा-बहुत इस प्रकार का अभ्यास किया जाय तो हानि नहीं है । परन्तु इसके लिये अन्तरङ्ग तपों को मुला बैठना, या प्रभावना समझना, या इससे यश ख़रीदने लगना आदि अनुचित है । यह बात अन्य बाह्य तपों के विषय में भी समझना चाहिये ।
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अन्तरङ्ग-तप ही वास्तव में तप हैं। इन्हीं से आत्म-शुद्धि और लोक-सेवा होती है । बाह्य-तप तो इसलिये तप हैं कि वे अन्तरङ्ग तप में कारण हैं । महात्मा महाबीर के पहिले बाह्य-तप को ही तप कहा जाता था, परन्तु बाह्य तप से आत्मा का कोई विशेष विकास न होता था, इसलिये उनने इन आभ्यन्तर तपों की रचना की, या मुख्यता दी । जैन धर्म ने तप शब्द के अर्थ में यह आवश्यक वृद्धि की थी । अकलङ्क देव ने इन तपों की आभ्यन्तरता के तीन
★ यतोऽन्यैस्तीच्यै रन भ्यस्तमनालीदं ततोऽस्यांतरत्वम् अभ्यन्तरमितियावत । अन्तःकरणव्यापारालम्बनं ततोऽस्याभ्यन्तरत्वम् । ९-२०-१ : बाह्यद्रव्यानपेक्ष त्वाच्च । ९-२०-२ | तत्वार्थ राजवार्तिक ।
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