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अहिंसा ].
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आज के लिये कितने उपयोगी हैं, और उनमें क्या क्या परिवर्तन आवश्यक है, इत्यादि विवेचन चारित्र को समझने के लिये आवश्यक हैं । इस अध्याय में उन्हीं का वर्णन किया जायगा ।
जैनशास्त्रों में तथा जैनेतरशास्त्रों में भी चारित्र या संयम पाँच भागों में विभक्त किया गया है--अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | बाकी जितने विधिविधान हैं वे सब इनके अन्तर्गत हैं या इनके साधक हैं । इन पाँच व्रतों में भी कोई कोई एक दूसरे के भीतर आ जाते हैं । इसका खुलासा आगे किया जायगा । यहां पर इन पाँचों के स्वरूप पर अलग अलग विवेचन किया जाता है।
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अहिंसा
व्यापकता, उच्चता और अग्रजता की दृष्टि से चारित्र में प्रथम स्थान अहिंसा को प्राप्त है । जब पापों में हिंसा प्रधान और व्यापक है, तब धर्म में अहिंसा प्रधान और व्यापक हो तो इसमें क्या आश्चर्य है ? यही कारण है कि, अहिंसा परम धर्म है' यह वाक्य प्रायः सभी धर्मों में माना गया है।
जो प्राणी इतना अविकसित है कि वह अर्थ संचय की उपयोगिता नहीं समझता, इसलिये चोरी भी नहीं जानता, जिसमें काम क्रिया ही नहीं है, अथवा वह इच्छापूर्वक नहीं होती, जिसमें बोलने की शक्ति नहीं है अथवा है तो उसकी भाषा अनुभय ( न सत्य, न असत्य ) है, इस प्रकार चार पापों के करने की जिसमें योग्यता नहीं है, वह भी हिंसा अवश्य करता है । हिंसाका क्षेत्र ऐसा ही व्यापक है । इसी प्रकार चारित्र में अहिंसा का क्षेत्र