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[जैनधर्म-मीमांसा
प्राणी है ओ घर के भीतर या गुफाओं में अकेले पड़ा रहना ही पसन्द करता है, इस प्रकार उसमें जड़ता आ गई है, परस्पर सहयोग के अभाव से अनेक प्रकार के प्राकृतिक कष्ट दूर नहीं किये जा सकते हैं, तथा विनोद आदि का निर्दोष सुख भी उपलब्ध नहीं है, ऐसी हालत में विविक्तशय्यासन तप न कहलायगा, किन्तु सामाजिकता या सहवास - तप कहलायेगा | मतलब यह कि तप सुख प्राप्ति दुःख-नाश तथा स्वतन्त्रता के लिये है । इसलिये कोई तप इनका विरोधी न होना चाहिये । विविक्तय्शयासन कभी कभी इनका विरोधी हो जाता है, इसलिये इस विषय में सतर्कता की ज़रूरत है । जैसे - एकान्त में रहने का अभ्यास हो जाने से हमें प्रसन्न रहने के लिये दूसरे की आवश्यकता नहीं होती, इस प्रकार हम स्वतन्त्र भी होते हैं और दूसरों को कष्ट देने से भी बचते हैं । परन्तु कल्पना करो कि हम किसी ऐसी जगह पहुँच जाँय - जहाँ एकान्त दुर्लभ हो, एकान्त की योजना करने में लोंगो को बहुत परेशान होना पड़ता हो । अगर ऐसी जगह न रह सकें और लोगों की सेवा न कर सकें तो यह हमारे जीवन की बड़ी भारी त्रुटि होगी । ऐसी परिस्थिति में विविक्तशय्यासन नहीं अविविक्तशय्यासन ही तप कहलाया । हम लोगों को सहन कर सकें, कोलाहल में भी शान्ति से सेवा स्वाध्याय आदि तप कर सकें, यह बड़ी भारी तपस्या है । इस तप का मतलब सिर्फ यही है कि हम विविक्तता या अविविक्तता में समभावी हो, इसके लिये दूसरे को कष्ट न दें, स्वयं दुखी न हों ।
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हाँ, अगर गम्भीर चिन्तन के कार्य के लिये थोड़े बहुत