SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८] [जैनधर्म-मीमांसा अपव्यय करानो अनुचित है । क्योंकि जब इस ढंग की प्रतिज्ञाएँ ली जाने लगती हैं, तब दाता-लोग बीसें तरह की वनस्पतियाँ और अन्य चीजें एकत्रित करते हैं, बदल बदल कर उनका प्रदर्शन करते हैं, इससे एक तमाशा लग जाता है । यह सब हिंसाजनक और अनावश्यक कष्टदायक होने से छोड़ देना चाहिये । दिगम्बर सम्प्रदाय के कोई कोई लेखक इस तप का उद्देश सिर्फ यही बताते हैं कि शरीर की चेष्टा के नियमन करने के लिये यह व्रत है । इसका कारण शायद यही है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में अनेक घरों से भिक्षा लेने का नियम नहीं है । परन्तु यह अर्थ बहुत संकुचित है । इतनी छोटी-सी बात के लिये अलग तप बनाने की आवश्यकता भी नहीं है । इसके अतिरिक्त मूलाचार में दाता तथा भाजन (वर्तन) आदि के नियमविशेषों को वृत्तिपरिसंख्यान कहा । है । इस प्रकार राजवार्तिककार का अर्थ मूलाचार के विरुद्ध जाता है । मालूम होता है कि राजवार्तिककार की नज़र में मूलाचार नहीं आया था। खैर, आजकल इस तप का अधिकांश भाग निरुपयोगी है। रसपरित्याग-जिस रस की तरफ आकर्षण अधिक हो अथवा उत्कट रस का चटपटा भोजन ही अच्छा मालम होता हो न वा, कायचष्टाविषयगणनार्थत्वाद वृतिपरिसंख्यानस्य । ~त. रा. वार्तिक १-१९-११॥ ! गोयर पमाण दायग मोयण नाणामिधाण जं गहणं । तह एसणस्स गहणं विविधस्स य वृत्तिपरिसंखा। -मूलचार ६५५
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy