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________________ २५६] [जैनधर्म-मीमांसा 4.8 लक्ष्य करके उपवास करना एक बात है और सेवा स्वाध्याय आदि तप करते करते उपवास करना पड़े, यह दूसरी बात है। इसका मूल्य अधिक है, क्योंकि सेवा स्वाध्याय आदि में लीन होने से नो उपवास होता है, उसमें आत्मा का विकास अधिक मालूम होता है । खैर, सार यह है कि बहिरङ्ग तप का महत्त्व अन्तरङ्ग तप से बहुत थोड़ा है तथा आज कल लोगों को सत्य की तरफ आकर्पण करने के लिये - एकाध अपवाद प्रसङ्ग को छोड़कर - अधिक आवश्यक नहीं है । अब तो इस विषय को निःसारता समझायी जाय, यही उचित है | सच्चा तप तो अन्तरङ्ग तप है । बहिरंग तप जो किया जाय उनकी व्यावहारिक उपयोगिता पर ध्यान रखना चाहिये, तथा उनसे स्वास्थ्य हानि न होना चाहिये | 1 तप बारह बताये गये हैं । उनमें से पहिले छः बहिरङ्ग तप है और पिछले छः अन्तरङ्ग तप हैं । . अनशन - उपवास करने का नाम अनशन है । 'आजकल कई लोग उपवास में पानी का भी त्याग करते हैं; परन्तु इससे स्वास्थ्य बिगड़ जाता है तथा उससे गर्मी बढ़ जाती है । स्वास्थ्य और व्यावहारिक उपयोगिता की दृष्टि से यह अनुचित है । इसलिये उपवास में पानी पीने की छूट रखना चाहिये । ऊनोदर - भूख से कम खाना ऊनोदर है । यह बहुत अच्छा तप है । परन्तु मर्यादा का उल्लंघन करना अनुचित और अनेक तरह के क्रम बनाना अनावश्यक है, जैसे- तिथि या चन्द्रमा की कला के अनुसार प्रास लेना आदि। अगर कभी इसकी आबश्यकता भी मालुम हो तो प्रदर्शन से बचना चाहिये ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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