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[जैनधर्म-मीमांसा करना चाहिये।
शौच शब्द का सीधा शब्दार्थ पवित्रता है । लोभ सब अनयों की जड़ है, पाप का बाप है, इसलिये उसका त्याग शौच कहा गया है । परन्तु शौच के नाम पर बाह्य शौच को अधिक महत्व प्राप्त हो गया है । खैर, शौच कोई बुरी चीज़ नहीं है, चाहे वह अन्तरंग हो चाहे बाघ । परन्तु बाह्य-शौच के नाम पर छूताछ्त के या शुद्धाशुद्धि के अनेक रिवाज़ या नियम बन गये हैं, उनमें अधिकांश निरुपयोगी ही नहीं, किन्तु हानिप्रद हैं। शरीर को शुद्ध रखना उचित है, और जिससे स्वास्थ्य को हानि हो ऐसी बात का बचाव करना भी उचित है, परन्तु मैं इसके हाथ का न खाऊँगा, उसके हाथ का न खाऊँगा, आदि बातें पाप है। शौच धर्म के नाम पर जाति-पाति का विचार होना ही न चाहिये। इसका विस्तृत वर्णन निर्विचिकित्सा अंग के वर्णन में आ चुका है, इसलिये यहाँ पुनरुक्ति नहीं की जाती।
सत्य-सत्य का वर्णन भी विस्तार से हुआ है, इसलिये इस विषय में भी यहाँ कुछ नहीं कहा जा सकता।
संयम-इस विषय पर तो यह सारा प्रकरण ही लिखा जा रहा है, इसलिये इस धर्म पर भी अलग से लिखने की जरूरत नहीं है।
तप-जैन-धर्म में तप को बहुत महत्व प्राप्त हो गया है, परन्तु जितमा महत्व प्राप्त हुआ है-उतनी ही गलतफहमी भी हुई है।
आजकल तप का अर्थ उपवास, खाने-पीने के नियम या राम कायकेश रह गया है । महात्मा महावीर उन कष्टसहिष्णु थे,