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________________ २५०] (जैनधर्म-मीमांसा तक हो सके क्षमा से काम लेना चाहिये, किन्तु अन्याय को रोकने के लिये जब कोई दूसरा उचित उपाय न रहे तब दंड से काम लेना चाहिये । क्षमा अपने स्थान पर क्षमा है और दूसरी जगह क्षमाभास है। मादव-मान अहंकार मद का त्याग करना अर्थात् विनय रखना मार्दव है। क्षमा के समान मार्दव के पहिचानने में भी कठिनाई है । चापलूसी और दीनता का मार्दव से कुछ सम्बन्ध नहीं है, परन्तु कभी कभी ये मार्दव के आसन पर आ बैठते हैं, इसलिये इनसे सावधान रहना चाहिये । आत्मगौरव या गुण-गौरव कभी कभी मार्दव से विरुद्ध मालम होते है, परन्तु बात बिलकुल उलटी है । वास्तव में ये दीनता और चापलूसी के विरोधी है। कभी कभी मद भी आत्मगौरव का रूप धारण कर लेता है, जबकि आत्मगौरव से उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता । जैसे--मेरा देश, मेरी जाति, मेरा धर्म-आदि भावों में आत्मगौरव समझ लिया जाता है। कभी कभी इनमें आत्मगौरव होता भी है, परन्तु अधिकांश स्थानों में देश, जाति, धर्म के स्थानों पर मनुष्य मेय' की पूजा ही करता है, उन बड़े बड़े नामों की तो सिर्फ ओट ली जाती है। अपना भाव मार्दव है कि मार्दवाभास, इस बात की पहिचान शुद्धान्तरात्मा ही कर सकता है, फिर भी एकाध बात ऐसी कही जा सकती है, जिससे मार्दव और मार्दवाभास की पहिचान करने में सहायता मिल सके। अपने देश, जाति, धर्म आदि की प्रशंसा करते समय इस बात का विचार करना चाहिये कि यह प्रशंसा अपना महत्व बतलाने
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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