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________________ दशधर्म] [२४७ दशधर्म । दशधर्म के रूप में भी चारित्र का वर्णन किया जाता है । क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, पाकिश्चन्य, ब्रह्मचर्य ये दशधर्म कहलाते हैं । ये दशधर्म आहिंसादिक पाँच व्रतों के लिये साधक हैं। इनके पालन से अहिंसादिक के पालन में सुभीता होता है । अहिंसादि व्रतों के वर्णन करने से इन दशधर्मो का वर्णन हो जाता है, परन्तु स्पष्टता के लिये इनका अलग वर्णन किया जाता है । यहाँ उनके विस्तृत वर्णन की आवश्यकता नहीं है, सिर्फ दिशानिर्देशमात्र किया जाता है । ... क्षमा-क्रोध का त्याग करना क्षमा है । इसका साधारण अर्थ विदित ही है । अहिंसा के पालन करने के लिये यह बहुत उपयोगी धर्म है । इसका पालन तो हरएक प्राणी कर सकता है, परन्तु जब वीरता-शक्तिशालिता-समर्थता के साथ इसका सम्बन्ध होता है, तब इसकी कीमत बहुत बढ़ जाती है। . . प्रत्येक गुण के पहिचानने में दो कठिनाइयाँ हैं। एक तो यह कि कोई दुर्गुण बाहर से उस गुण के समान मालूम होने लगता है। दूसरा यह कि कभी कभी उस. गुण का बाहिरी रूप वैसा ही प्रगट नहीं होने पाता है जैसा कि साधारणतः प्रगट होना चाहिये । ये दोनों कठिनाइयाँ क्षमा के विषय में भी है। कभी कभी मनुष्य, भय से, विवशता से, या कायरता से क्षमा का ढोंग करता है, परन्तु उसका हृदय निर्वैर नहीं होने पाता इसका नाम क्षमा नहीं है। क्षमता रहने पर भी बदला न लेना
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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