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________________ २०४ ] [ जैनधर्म-मीमांसा कहीं पर प्रत्याख्यान के स्थान पर स्वाध्याय पाठ मी मिलता है, जो कि इस बात का सूचक है कि जिस समय जिस बात की अधिक आवश्यकता होती है उसे उस समय मूल-गुण में रख लिया जाता है, साधुता के समान साधु-संस्था के नियम स्थायी नहीं है। सामायिक के बदले में दूसरा शब्द है समता । सुख-दुख में, शत्रु-मित्र में समभाव रखना समता या सामायिक है । इस समता भाव के अभ्यास के लिये सामायिक की क्रिया भी, दिन में तीन बार सुबह, मध्याह और सन्ध्या को कुछ समय के लिये ध्यान लगाकर स्थिर होना - प्रचलित है । अभ्यास की दृष्टि से एक समय यह क्रिया आवश्यक मालूम हुई होगी, परन्तु आज इसकी ज़रूरत नहीं 1 है । हाँ, मनुष्य एकान्त में बैठे-अच्छे विचार करे- इसमें कुछ बुराई नहीं है, परन्तु आवश्यकता न होने पर भी प्रतिदिन इतना समय खर्च करना निरर्थक है । हाँ, यहाँ सामायिक का जो समताभाव अर्थ किया गया है वह ठीक है, परन्तु इसका बहुत-सा काम तो इंद्रिय निरोध से चल जाता है । उससे अधिक समभाव उचित होने पर भी मूल-गुण में शामिल नहीं किया जा सकता । हाँ, साम्प्रदायिक समभाव या सर्वधर्म समभाव अनिवार्य है, इसलिये उसे मूल-गुण में अवश्य गिनना चाहिये। दूसरे शब्दों में स्याद्वादका सच्चा रूप उसे जीवन में उतारना चाहिये । इस प्रकार का समभाव + समता घर बन्दन करें नाना धुती बनाय | प्रतिक्रमण स्वाध्यायजुत कायोत्सर्ग लगाए || इष्ट छत्तीसी २३ ।
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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