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[ जैनधर्म-मीमांसा जो कोई उसे बुला ले और उसके यहाँ उसके लायक शुद्ध-भोजन मिल सके तो भोजन कर ले।
२-अथवा, थोड़ा थोड़ा अनेक घरों से माँगकर भोजन कर ले।
३-अगर कोई निमन्त्रण करे तो उसके यहाँ भोजन कर ले।
-४-अपने परिश्रम से पैदा किये पैसे से भोजन ख़रीदकर या भोजन का सामान खरीदकर स्वयं तैयार करके भोजन कर ले।
इससे साधु में बेज़िम्मेदारी न आ पायेगी और समाज को साधु-समाज की चिन्ता न करना पड़ेगी, क्योंकि उसके लिये स्वयं परिश्रम करने का मार्ग खुला रहेगा । हाँ, आवश्यकता के लिये बाकी तीन मार्ग भी खुले रहेंगे।
प्रश्न-यदि समाज साधुओं के लिये कोई आश्रम बना दे और साधु लोग वहाँ भोजन करें तो वह भोजन उपर्युक्त चार श्रेणियों में से किस श्रेणी में समझा जायगा ?
उत्तर-चौथी श्रेणी में; क्योंकि आश्रम में रहकर वह कुछ काम करेगा और उस काम के बदले में भोजन लेगा, मुफ्त में नहीं । हाँ, अतिवृद्ध होने पर या अतिरुग्ण होने पर वह पेन्शन के तौर पर भोजन ले सकता है । परन्तु इस प्रकार की पेन्शन देना न देना समाज की इच्छा पर निर्भर है, अथवा उसकी पूर्व सेवाओं पर या भविष्य में होनेवाली सेवा की आशा पर निर्भर है।
प्रश्न-साधु के लिये इस प्रकार भोजन के अनेक मार्ग खोलकर जहाँ आपने उसके सिर पर जिम्मेदारी लादी है और