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________________ १८२] [जैन-धर्म-मीमांसा समाज को ऐसे सेवकों की आवश्यकता रहती है जो निःस्वार्थ . भाव से काम करें । वैतनिक सेवकों से जो काम नहीं हो सकता या अच्छी तरह नहीं हो सकता, इस प्रकार की सेवा का काम एक बर्ग करे, उसके लिये साधु-संस्था की आवश्यकता समाज को होती है । इस प्रकार व्यक्ति और समाज परस्पर उपकार करते हैं । साधु, जीवन-निर्वाह की सामग्री-भले ही यह कम से कम हो-समाज के पास से लेता है। इतना ही नहीं, किन्तु अपने रक्षण की समस्या भी वह समाज से सुलझवाता है। आज गृहस्थ होकर अगर कोई अपमानित हो तो दूसरे उनकी इतनी पर्वाह नहीं करते, बल्कि उसे निर्बल या दब्बू समझकर मन ही मन उसे नीची निगाह से देखने लगते हैं, परन्तु साधु के विषय में बात उल्टी है । साधु के अपमान को समाज अपना ही अपमान समझता है, इसलिये वह साधु का अपमान होने नहीं देता, और इससे भी बड़ी बात तो यह है कि जो साधु अपमान वगैरह को सहन कर जाता है उसे समाज और भी अधिक श्रद्धा की दृष्टि से देखता है । जिस अवस्था में गृहस्थ की महत्ता घटती है उस अवस्था में साधु की महत्ता बढ़ती है । गृहस्थ-अवस्था में अनेक जगह सिर झुकाना पड़ता है जब कि साधु बड़े से बड़े महर्द्धिक के सामने सिर नहीं झुकाता । यह सब समाज का, साधु के ऊपर बड़ा उपकार है, इसलिये उसे सारी शक्ति लगाकर समाज की सेवा करना चाहिये । ___ जो आदमी समाज से, सेवा से अधिक बदला लेता है अथवा समाज को अनावश्यक कष्ट देता है, वह साधु कहलाने के लायक नहीं है, और न वे नियम साधु-पद के नियम कहे ना सकते हैं
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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