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________________ १३२] [जैन-धर्म-मीमांसा रामचन्द्रजी को क़ैद कर लिया होता और वह उन्हें छोड़ने के लिये सिर्फ इसी शर्त पर तैयार होता कि सीता रावण की इच्छा पूरी करे और पति-रक्षा के लिये सीताजी ने रावण का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता तो सीताजी का ब्रह्मचर्याणुव्रत कभी भंग न होता । भगवती सीता ने लोकोत्तर दृढ़ता का परिचय दिया इसलिये उनके विषय में ऐसी कल्पना करते भी संकोच होता है, परन्तु अगर कोई दूसरी स्त्री इस प्रकार दृढ़ता का परिचय न दे सके तो हम उस की गिनती वीराङ्गनाओं में भले ही न करें परन्तु उसे चरित्र-भ्रष्ट या असंयमी नहीं कह सकते । व्यभिचार किस वासना का फल है, इसका विचार करने पर यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जायगी । व्यभिचार में समाज के 1 ऊपर एक प्रकार का आक्रमण किया जाता है, दूसरे के कुटुम्ब के बन्धन को शिथिल बनाया जाता है, कौटुम्बिक जीवन विश्वासशून्य और अशान्त बनाया जाता है और इन सब कार्यों के लिये कोई भी नैतिक अवलम्बन नहीं होता; जब कि विरोधी मैथुन में ये सब बातें नहीं होती । व्यभिचार जिस प्रकार काम वासना की उत्कटताअमर्यादिता का परिणाम है, उस प्रकार उपर्युक्त विरोधी मैथुन नहीं । 1 शंका- क्या इस छूट का दुरुपयोग न होगा ? क्या इस की ओट में वास्तविक व्यभिचार न छुपाया जायगा ! समाधान - छुपाने को मनुष्य किसकी ओट में क्या नहीं छुपा सकता ? देखना इतना चाहिये कि छूट के भीतर पाप को पकड़ने के पर्याप्त साधन हैं कि नहीं ? उदाहरणार्थ कोई स्त्री व्यभिचार करके
SR No.010100
Book TitleJain Dharm Mimansa 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1942
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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