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________________ ७८] चौथा अध्याय ... न्यायशास्त्रों में सर्वज्ञसिद्धि के लिये लंबे विवेचन किये गये हैं परन्तु उनमें सारतर। कुछ नहीं है। खास खास युक्तियों की आलोचना ऊपर की गई है । जो कुछ बातें रह गई हैं उनकी आलोचना कठिन नहीं है । इन आलोचनाओं के पढ़ने से वे आलोचनाएँ अपनेआप की जासकेंगी। अन्य युक्त्यामाम कुछ ऐसे युक्त्याभास भी हैं जिनकी युक्त्याभासता सिद्ध करना और भी सरल है । साधारण लोग इन का प्रयोग किया करते हैं, कुछ प्राचीन शास्त्रों में भी पाये जाते हैं, कुछ जैन मन्दिरों में चर्चा के समय सुनाई देते हैं । यद्यपि इनके उल्लेख की विशेष आवश्यकता नहीं है फिर भी इसलिये इनका उल्लेव यहाँ किया जाता है कि साधारण सनझवाले को इनका उत्तर भी नहीं सूझता । उनको कुछ सुभीता हो इसलिये इन युक्त्याभासों को यहाँ शंका के रूप में रक्खा जाता है। १ शंका-तीन काल तीन लोक में सर्वज्ञ नहीं है तो क्या तुमने तीन काल तीन लोक देखा है ? यदि देखा है तो तुम्ही सर्वज्ञ. हो, यदि नहीं देखा है तो उसका निषेध कैसे करते हो ? समाधान-हम तीन काल तीन लेक में देखकर सर्वज्ञाभाव सिद्ध नहीं कर सकते । वैसे भी सर्वज्ञ दिखने की चीज नहीं है । वह अनुमान का विषय है । अनुमान से जब सर्वज्ञता खंडित । जाती है जब उसकी वस्तु-स्वभावता असम्भव होजाती है, तब उसका अभाव सब जगह के लिये मानना पड़ता है ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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