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________________ ६२] चौथा अध्याय इस प्रकार न तो समस्त जगत् में अनुमेयत्व है न समस्त सूक्ष्म अन्तरित और दूर पदार्थों में अनुमेयत्व है तब उनमें प्रत्यक्षत्व कैसे सिद्ध हो सकता है जिससे सर्वज्ञ सिद्ध हो । तात्पर्य यह है कि पहिले तो प्रत्यक्षत्व और अनुमेयत्व की व्याप्ति ही नहीं है, उधर सूक्ष्मत्वादि धर्म प्रत्यक्षत्व के बाधक हैं, अगर प्रत्यक्षत्व सिद्ध भी हो जाय तो यह सिद्ध नहीं होता कि प्रत्यक्ष की योग्यता से वे किसीके प्रत्यक्ष अवश्य होंगे। अगर प्रत्यक्ष होना भी मान लिया जाय तो किसी एक आत्मा के प्रत्यक्ष हो सकेंगे जिसे सर्वज्ञ कहा जायगा, यह सिद्ध नहीं होता । इधर सब सूक्ष्मादि पदार्थ अनुमेय नहीं हैं इस प्रकार सर्वज्ञसिद्धि का प्रयत्न करनेवाला यह अनुमान बिलकुल व्यर्थ है । दूसरा युक्त्याभास. प्रश्न- कोई प्राणी थोड़ा ज्ञानी होता है, कोई अधिक । इस प्रकार ज्ञानकी तरतमता पाई जाती है । जहाँ तरतमता है वहाँ कोई सब से छोटा और कोई सब से बड़ा अवश्य है । जिस प्रकार पर - माण, परमाणु में सब से छोटा और आकाश में सब से बड़ा (अनन्त) है, उसी प्रकार कोई सब से बड़ा ज्ञानी भी होगा; वही अनन्त ज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ है । उत्तर -- जहाँ तरतमता है, वहाँ कोई सब से बड़ा नियम नहीं का बड़ा होता है, इस प्रकार भी किसी का शरीर अनन्त है । किसी का शरीर छोटा, किसी की अवगाहनामें तरतमता होने पर नहीं है । जैन शास्त्रों में शरीर की अवगाहना ज्यादः से ज्यादः 1
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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