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________________ ४४] चौथा अध्याय या भविष्य के विषय में व्यक्त अव्यक्त कल्पनाएँ आकांक्षाएँ सम्भावनाएँ भयवृत्तियाँ दिखती हैं । ये तो जैसी जागृत अवस्था में होती हैं वैसी स्वप्न में भी। कभी सफल होती कभी अफल । इनको प्रत्यक्ष नहीं कह सकते ये तो सूक्ष्म स्थूल तर्कणाएँ हैं जोकि परोक्ष हैं । परोक्ष में अर्थ की आवश्यकता नहीं होती किन्तु विचार करने के लिये संस्कार से आये हुए ज्ञान की आवश्यकता होती है । प्रत्यक्ष में पदार्थ कारण है इसका कार्यकारणभाव या अन्वयव्यतिरेक अनुभवसिद्ध है । एक आदमी हमारे सामने आता है उसका प्रत्यक्ष होता है, ओट में हो जाता है प्रत्यक्ष रुक जाता है। सौबार वह ओट में जायगा तो प्रत्यक्ष सौबार रुक जायगा जब जब सामने आयगा तभी तभी प्रत्यक्ष होगा। इससे मालूम हुआ कि उस आदमी के प्रत्यक्ष में वह आदमी कारण है क्योंकि उसके होनेपर ही प्रत्यक्ष हुआ उसके न होने पर कदापि न हुआ । प्रश्न-पदार्थ तो सिर्फ चेतनाको जगाता है वह प्रत्यक्षमें कारण नहीं होता । चेतना न जगे तो पदार्थ होने पर भी प्रत्यक्ष नहीं होता। उत्तर-एक ही कारण से कार्य नहीं होता । कार्य के लिये पूरे कारणों की आवश्यकता है । प्रत्यक्ष में पदार्थ भी चाहिये और चेतना का जागरण भी । एक कारण होने से दूसरे कारण का अभाव नहीं होजाता है। देखने के लिये आँख भी चाहिये और पदार्थ भी । पदार्थ होनेपर भी आँख न होने पर दिखाई नहीं दे सकता और आँख होने पर पदार्थ न होने पर पदार्थ नहीं दिख सकता, इससे दोनों कारण कहलाये। आँखों के कारण होने से
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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