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________________ श्रुतज्ञान के मेद. ३९० वक्ता की अज्ञानता स्पष्ट है, इसलिये आगामी तीर्थकर होने की बात असल्य है। ___ कषायजन्य असत्य उदाहरण दिगम्बर और श्वेताम्बर आदि सम्प्रदायों के उत्पन्न होने की कथाएं हैं; क्योंकि इन कथाओं के बनाने वाले सम्प्रदायिक दोष से दृषित हैं, इसलिये एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिये ये कथाएं गढ़ीगई हैं। कहा जा सकता है कि कथाकार तो मुनि या महावती थे इसलिये वे मिथ्या कल्पना कैसे कर सकते हैं ? इसके उत्तर में निम लिखित बातें कही जा सकती हैं। वे वीतराग थे, इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं है। प्रमाणके आधार पर जो कुछ कहा जा सकता है, वह इतना ही कि वे मुनिवेषमें रहते थे और विद्वान् थे। परन्तु जैनशास्त्रों के अनुसार शुक्ललेश्या वाला पूर्वपाठी मुनि भी द्रव्यलिंगी-मिध्यादृष्टि हो सकता है, इसलिये विद्वत्ता और मुनिवेष सत्यवादिता से अविनाभाव सम्बन्ध नहीं रखते। दूसरी बात यह कि महाव्रती होने से कोई व्यवहार में असत्य नहीं बोल सकता, परन्तु धर्मरक्षा धर्म-प्रभावनाके लिये महाव्रती भी असत्य बोल जाते हैं, इसके उदाहरण प्रथमानुयोग में भी बहत मिलते हैं। व्यवहार में जो असत्य बोला जाता है, उस का हिंसा और संकेश के साथ जितना निकट सम्बन्ध है, उतना धर्मप्रभावनाके लिये बोले गये असत्य में नहीं समझा जाता। इस लिये संप्रदायिक मामलों में असत्य की बहुत अधिक सम्भावना है।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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