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________________ स्तमानके मेद [३६५ समन्तभद्रसूरिने भी प्रथमानुयोग को अर्थाख्यान [१ कहा है। अर्थाख्यान अर्थात् अर्थ का आख्यान । इससे भी माला होता है कि प्रथनानुयोग धर्म के अर्थ का व्याख्यान है न कि इतिहास । धर्मकथाओं में जो थोड़ी बहुत ऐतिहासिक सामग्री मिलती है उसको निकालने के लिये कठोर परीक्षा की आवश्यकता है। सुवर्ग में अगर थोड़ा भी मैल हो तो उसे धधकते अंगारमें डालने की ज़रूरत होती है । काड़े में अगर थोडासा भी मैल हो तो उसे पछाड़ पछाड़ कर ठिकाने लाना पड़ता है। ऐसी हालत में भोले आदमी तो सुनार और धोबी को निर्दय ही कहेंगे परन्तु जानकार उन्हें चतुर तथा विवेकी कहेंगे । जब शास्त्रों की आलोचना की जाती है तब भी इसी तरह विवेकपूर्ण कोरता से काम लेना पड़ता है । भोले भाई उस समालोचक को कृतन, निर्दय, धर्मभ्र आदि समझते हैं, परन्तु जान कार उसके मूल्य को जानते हैं, और जनसे हे कि सत्य की प्राप्ति के लिये ऐसा करना अनिवार्य है। कासाहित्य की परीक्षा फिस ढंगसे करना चाहिये, और उसके ऐतिहासिक सत्यासत्य को कैसे समझना चाहिये, इस विषय की कुछ सूचनाएं यहां उदाहरणपूर्वक लिखी जाती है। परीक्षा का ढंग-प्रथमानुयोग इतिहास नहीं है, फिर भी उसमें इतिहास की सामग्रो कभी कभी मिल जाती है। उस . (३) प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमापे पुण्यं । . बोधिसमाधेिनिधानं बोषित बोधः समीचीनः ॥ 1४३ | रखकरण्ड।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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