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________________ ३४२ ] पाँचवाँ अध्याय समन्वय किया है । इस आजीवकों के विचारों का और शास्त्रों का से जैनाचार्यों की उदारता, समयज्ञता और लगता है । यद्यपि वह बहुत मर्यादित है, समन्वयशीलता का पता उस समय को 1 परन्तु देखते हुए अधिक ही है । इससे यह भी मालूम होता है कि जिनवाणी का वर्तमान रूप अनेक संगमों का फल है । यह हरिद्वार की गंगा नहीं, किन्तु गंगासागर की गंगा है । पूर्वगत- जैन साहित्य का मूलसे मूल साहित्य यही है । ग्यारह अंग तथा दृष्टिवाद के अन्य भेद सब इसके बाद के हैं । सब से पहिले का होने से इसे पूर्व कहते हैं । नन्दीसूत्रके टीकाकार कहते हैं- "तीर्थंकर [2] तीर्थरचना के समय में पहिले पूर्वगत का कथन करते हैं इसलिये उसको पूर्वगत कहते हैं । फिर गणधर उसको आचार आदि के क्रमसे बनाते हैं या स्थापित करते हैं । आचारांग को जो प्रथम स्थान मिला है वह स्थापना की दृष्टि से मिला है, अक्षर- रचना की दृष्टि से तो पूर्वगत ही प्रथम है । " ग्यारह अंग में जितना विषय है वह सब दृष्टिवाद में आ जाता (१) इइ तीर्थकर स्तर्थिप्रवर्तनकाले गणधरान् सकल श्रुतार्थावगाहनसमर्थानधिकृत्य पूर्व पूर्वगतं सूत्रार्थभाषते ततस्तानि पूर्वाण्युच्यन्ते गणधराः पुनः सूत्ररचनां विदधतः आचारादिक्रमेण विदधति स्थापयन्ति वा । नन्विदं पूर्वापरविरुद्धं यस्मादादौ नियुक्तायुक्तं सव्वेर्सि आयारो पढमो इत्यादि, सत्यमुक्तं, किन्तु तत्स्थापनामधिकृत्योक्तमक्षर रचनामधिकृत्य पुनः पूर्व पूर्वाणि कृतानि ततो न कश्चित्पूर्वापरविरोधः । नन्दी टीका ५६ |
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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