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________________ श्रुतज्ञान के मेद [३४१ कर दिया गया था। यह सापेक्ष व्याख्या समन्वयके लिये अत्युपयोगी है। आजकल सात नथ प्रचलित हैं। परन्तु नन्दीसूत्रके कयनानुसार पहिले चारही नय थे और आजीवकों में तीन नय थे। सम्भव है कि ये दोनों मत मिलाकर सात नय बने हों, और प्राचीन मत के ठीक ठीक नाम उपलब्ध न हों । कुछ भी हो परन्तु इतना निश्चित है कि वर्तमान की नव-व्यवस्था में आजीवकों का भी कुछ हाथ है । 'पहिले आचार्य आजीवक मत का अवलम्बन लेकर तीन प्रकार के नयों से विचारते थे'- नन्दीटीका का यह वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है। जन और आजीवकों में इतना अधिक आदान-प्रदान हुआ है और वह मिश्रण इतना अधिक है कि दोनों का विश्लेषण करना कठिन हो जाता है । अन्य सब दर्शनों की अपेक्षा आजीवकों के विषयमें जैनियों का आदर भी बहुत रहा है। जैनाचार्यों ने जैवेसर मतानुयायिओं को अधिक से अधिक पांचवें स्वर्ग तक पहुँचाया है जब कि आजीवकों को अन्तिम [ बारह अथवा सोलह ] स्वर्गतक पहुंचाया है। इसके अतिरिक्त जैनाचार्यों के मतानुसार गोशाल अंगपूर्व पाठी थे। इन सब वर्णनों से स्पष्ट ही मालूम होता है कि जैनाचार्योंने गोशाल की निन्दा करते हुए भी उनके आजीक्क सम्प्रदाय को अपना लिया है और उनके साहित्य से अपने बाबा साहित्य ( परिकर्म और सूत्र ) को अलंकृत किया है, उनकी नयविवक्षा से अफो नयादों को बनाया है और सापेक्ष व्याख्या से
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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