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________________ श्रुतज्ञान के भेदः [३०५ ही था कि वह अन्तर्मुहर्त ( करीब पौन घंटा) में पढ़ा जा सके। पीछे उसका कलेवर बढ़ा और बढ़ा उसी समय, जब कि म. महावीर के शिष्य जीवित थे। वेताम्बरों का जो सूत्र साहित्य उपलब्ध है वह करीब डेढ़ हजार वर्षसे ज्योंका त्यों चला आ रहा है इसटिये यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि पिछले डेढ़ हजार वर्षसे उसके ऊपर समय का प्रभाव नहीं पड़ा, इसलिये उसमें खोजकी सामग्री बहुत है। 'परन्तु उसके पहिले के हजार वर्षों में उसके ऊपर भी समय का प्रभाव पड़ा है । वह प्राचीन साहित्य को छो. कर बिलकुल नये ढंगसे नहीं बनाया गया, इसलिये उसमें कुछ मौलिकरूप अवश्य बना हुआ है। परन्तु जब गणधरों के समय में ही वह पर्याप्त विकृत हो गया था तब इसका अधिक विकृत होना अनिवार्य है। दिगंबरों ने मौलिक साहित्य के खंडहरका भी त्याग कर दिया और उसके पत्थर लेकर उनने दूसरी जगह नई इमारत बनाई, फल यह हुआ कि इमारत कुछ सुंदर बनी परन्तु प्राचीन खोज के लिये बहुत कम काम की रही । और भी एक दुर्भाग्य यह हुआ कि उनकी सारी रचना एक साथ नहीं हुई, किन्तु धीरे धीरे होती रही और समग्र साहित्य की पूर्ति नवमी दसमी शताब्दी तक हो पाई है। फल यह हुआ कि मुट्ठी सातमी शताब्दी के बाद कुमारिल शंकर आदि के द्वारा जो धार्मिक क्रान्ति की गई, उसका पूरा असर उसके ऊपर पड़ा, और वह अत्यन्त विकृत होगया । जिनसेन आदि समर्थ आचार्यों को उसी प्रवाह में बहकर जन साहित्य को विकृत बनाना पड़ा है। दिगम्बर वाचायों के ऊपर
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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