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________________ ३०४ ] पाँचवाँ अध्याय क्षुण्ण न हुआ होगा, इस की कल्पना अच्छी तरह की जा सकती है। 'जैनधर्मशास्त्र को 'सूत्र' कहते हैं। यह शब्द भी जैन साहित्य के मौलिक रूप पर प्रकाश डालता है। किसी विस्तृत विवेचन को सूचना के रूप में संक्षेप में कहना सूत्र कहलाता है । दिगम्बर और श्वेताम्बरों ने जैनधर्मशास्त्र का विस्तृत माना है उसे स्वीकार करते हुए उनको सूत्र कहना उचित नहीं मालूम होता । कहा जा सकता है कि प्राकृतके 'सुत्त' शब्द का संस्कृतरूप 'सूत्र' बनाने 'की उपेक्षा 'सूक्त' क्यों न बनाया जाय ? जैसे वेदों में 'सूक्त' माने जाते हैं उसी प्रकार इधर अंग पूर्वो में 'सूक्त' कहे जाँय । सम्भव है म. महावीर के समय में 'सूक्त' के स्थान में ही 'सुत्त' शब्द का प्रयोग किया गया हो, परन्तु किसी जैन लेखकने जैन साहित्य को सूक्त नहीं कहा, सभी उसे सूत्र कहते हैं । तब प्रश्न होता है कि इन विशालकाय वर्णनों को जिनमें पुनरुक्ति आदि का छूट से उपयोग है— सूत्र हुआ कैसे कहा जाय ? - इस प्रश्न का एक ही समुचित उत्तर यह है कि जैन वाङ्मय पहिले सूत्र ही था । म. महावीर ने सूत्ररूप में उपदेश दिया था ( और सम्भव है कि उसका प्राचीन संग्रह भी सूत्र में ही हुआ हो ) और बाद में फिर वह बढाया गया। जिन सूत्रों का वह बढाया हुआ रूप था वह भी सूत्र कहलाया । और बाद में तो अंगबाह्य साहित्य भी सूत्र कहलाने लगा है। शास्त्रों में यह कथन मिलता है कि द्वादशांगकी रचना अन्तमुहूर्त में की गई थी, उसका पाठ भी अन्तर्मुहूर्त में हो सकता है । यह अतिशयोक्ति नहीं है किन्तु वास्तविक बात है। मूल सूत्र इतना
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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