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________________ श्रुतज्ञान के भेद ( २९५ है इसलिये निःसंकोच भाव से युक्ति-विरुद्ध और अविश्वसनीय पर. म्परा को अलग कर देना चाहिये । पुरानेपन के गीत गाकर हम भक्ति बतला सकते हैं परन्तु जैनत्व या सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। मीमांसा के आगामी विचनों से भी इन बातों का समर्थन होगा। श्रुतज्ञान के भेद रुतज्ञान के भेद अनेक तरह से किये जाते हैं। निन्न लिखित चौदह द दस्तान के चौदह भेद नहीं हैं किन्तु सात तरह से दो दो भेद (२) हैं, जो कि विषय को स्पष्ट करने के लिये किये गये हैं । १ अक्षरदस्त, २ अनक्षरमरुत | ३ संशिरुत, ४ असंशिस्त । ५ सम्यक् दरुत ६ मिथ्याश्रुत । ७ सादिश्रुत, ८ अनादिश्रुत । ९ सपर्यवसित, १० पर्यवसित । ११ गमिक, १२ अमिक १३ अंगप्रविष्ट । १४ अनंग प्रविष्ट २] अक्षरहरुत-अक्षर से उत्पन्न ज्ञान अक्षग्दरुत है। उपचार से अक्षर को भी रुत कहते हैं, इसलिये अक्षर के तीन भेद माने (१) ननु अक्षरश्रुतानक्षर श्रताप एवं भेदद्वये शेषमेदा अन्तर्मवन्ति तत्किमर्थ तेषाम्भेदापन्यासः ? उच्यते इह अव्यु पानमतीनां विशेषावगमसम्पादनाय महात्मat शास्त्रारंभप्रयास न चाक्षरतानक्षरश्रुतरूपमदद्योपन्यासमात्रादव्यु पन्नमतयः शेष दानवगन्तुमशिते, ततोऽव्युत्पन्नमतिविनयजनानुनहाय शेषभेदोपन्याम इति । नन्दी टाका ३७। [२] नन्दीत्र ३० । अवखर सन्नी सम्मं साइयं खलु सपञ्जवसिअंग गमिअं अंगपविठं सवि एए सपडित्रक्खा ॥ कम्म विवाग । प्रथम ६ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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