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________________ २९४ ] पाँचवाँ अध्याय या मिलेगी इस प्रकार का ज्ञान । आमिनिबोधक-अभिमुख निश्चित ज्ञान। दूसरा मत यह है कि ये सब पर्याय-शब्द हैं । स्मृति भूतकाल को विषय करनेवाली, संज्ञा-वर्तमान विषयवाली । चिंता भविष्य विषयवाली । ये तीनों मिलकर त्रिकाल--विषयी आभिनिबोधक ज्ञान है। यहां इन मतभेदों की आलोचना करने की जरूरत नहीं है । मतिज्ञान के इस विस्तृत विवेचन स ( मतभेद और उत्तरोत्तर विकासमय विवेचन से ) पाटक निम्न--लिखित बातें अच्छी तरह समझ गये होंगे। दूसरे दर्शनों का जिस प्रकार क्रमक्रम से विकास हुआ है उसी प्रकार जैनदर्शन का भी हुआ है। वह किसी सर्वज्ञ का कहा हुआ नहीं है। दूसरे दर्शनों के समान जैनदर्शन में भी परस्पर विरोध है । पौर्वापर्याविरुद्धता बतलाना अन्धश्रद्धा के सिवाय कुछ नहीं है । आचार्य कुछ लोकोत्तर ज्ञानी न थ । व आवके विद्वानों के समान ही विद्वान थे। यह भ्रम है कि उनसे बड़ा विद्वान अब हो नहीं सकता, या होता नहीं है। ___ आज श्रद्धाके भरोसे जैनदर्शन और जैनधर्म प्राप्त नहीं हो सक्ता , ने.पक्ष आलोचना करके तर्क के बल पर ही में जनधर्म प्राप्त करना चाहिये । परम्पराएँ पुरानी होकर के भी म. महावीर के पीछे की है। धान परम्परा उस समय की है और कौन नहीं है; यह कहना कठिन
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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