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________________ मतभेद और आलोचना [ २७१ दूसरी बात यह है कि चक्षु को अप्राप्यकारी मानना भी भूल है । प्रायः सभी जैन नैयायिकों ने चक्षुको अप्राप्यकारी माना हैं. और किरणों का निषेध किया है। उनकी युक्तियाँ निम्न लिखित हैं । [१] चक्षुके ऊपर विषयका प्रभाव नहीं पड़ता, जैसे तलवार की देखने से आँख नहीं कटती, अग्नि को देखने से आँख नहीं जलती आदि । ( २ ) यदि चक्षु प्राप्यकारी हो तो वह आँखके अंजन को या अंजन-शलाकाको क्यों नहीं देखती ? ( ३ ) प्राप्यकारी हो तो निकट दूर के पदार्थ एक साथ न दिखाई दें | एक ही साथ में शाखा और चन्द्रमा का ज्ञान भी न हो न बड़े बड़े पर्वत आदि का ज्ञान हो । [ ४ ] आंखों से किरणों का निकलना मानना अनुचित हैं। आंखों में किरण सिद्ध ही नहीं हो सकतीं । [ ५ ] निकट का पदार्थ दिखाई देता है, दूर का नहीं दिखाई देता इत्यादि बातों में कर्म का क्षयोपशम कारण है । आज वैज्ञानिक युग की कृपा से इस बात को साधारण विद्यार्थी भी समझता है कि आँव से कोई पदार्थ क्यों दिखाई देता है, उपर्युक्त मत युक्त है, साथ ही जो नेत्रों से किरणें निकलना मानते हैं उनका कहना भी भ्रनयुक्त है । वास्तव में पदार्थ से किरणें निकलतीं हैं, और वे आँख पर पड़तीं हैं। इससे हमें पदार्थ का ज्ञान होता है । ऊपर की युक्तियां निःसार हैं । उनका उत्तर निम्न प्रकार है । •
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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