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________________ २७० ] पाँचवाँ अध्याय सभीने चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं माना, परन्तु इसका ठीक ठीक कारण कोई नहीं बता पाता है। यद्यपि सभी ग्रंथकार एक स्वर से बतलाते हैं कि चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं अर्थात् अर्थ-सम्पर्क के बिना ही अर्थ को जानते हैं, परन्तु यह कारण ठीक नहीं मालूम होता । अर्थ के सम्पर्क का व्यंजन के साथ क्या संबंध है ? जिस प्रकार प्राप्यकारी में अर्थ और व्यंजन अवग्रह होते हैं, उस प्रकार अप्राप्यकारी में क्यों नहीं ? व्यंजन [ उपकरण } तो दोनों जगह है । यदि कहा जाय कि 'उसका संयोग नहीं है तो वह व्यक्त क्यों हो जाता है ? जहाँ अव्यक्त को भी जगह नहीं है वहाँ व्यक्त को जगह कैसे मिल सकती है? जिस प्रकार 'सुप्तावस्था में दस बार बुलाने पर प्रारंभ में नव बार तक व्यंजनावग्रह है, उसी प्रकार किसी को दस बार कोई वस्तु दिखाने पर प्रथम नव बार तक व्यंजनावग्रह क्यों न माना जाना चाहिये ? सोते में आँखों के खुल जाने पर या स्त्यान्गृद्धि निद्रामें खलजाने पर रूका व्यंजनावग्रह क्यों न माना जाय ? यदि कहा जाय कि 'कान में धीरे धीरे शब्द भरते रहते हैं और जब वे पूरे भर जाते हैं तब सुनाई देता है, तो यह काना भी ठीक नहीं, क्याकि शब्द गन्ध आदि कान नाक में भरके नहीं रह जात किन्तु तुरन्त नष्ट हो जाते हैं। दूसरी बात यह है कि सुप्तावस्था में कान में या नाक में कम शब्द या कम गन्ध जाते हों ऐसा नियम नहीं है। अधिक शब्द जाने पर भी सुप्तावस्था में व्यंजनावग्रह होता है और जागृत अवस्था में उसी मनुष्य को थोड़े और मन्द शब्दासे भी अर्थावग्रह होता है। इससे प्राप्यकारिता अप्राप्यकारिता अवग्रह के व्यंजन और अर्थ भेद नहीं बना सकती ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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