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________________ २१८ ] पाँचवाँ अध्याय अंश नहीं होता इसलिये जैसे बाहर से मिट्टी आदि की चोट होती है उसी प्रकार भीतर से विजातीय द्रव्य या मलद्रव्य की चोट होती है शरीर से भिन्न दोनों ही हैं । खैर, शरीर से भिन्न हों या न हों पर इन्द्रिय आदि ज्ञानोपकरणों से भिन्न अवश्य हैं इसलिये वह पर संवेदन ही है । संवेदन प्रकरण में स्व की सीमा संवेदन के उपकरणों तक ही है। प्रश्न-इन्द्रिय पर तो पदार्थ का प्रभाव उल्टा ही पड़ता है ता दर्शन उल्टा होना चाहिये । उत्तर जैसे फोटो के केमरे पर पहिले उल्टे चित्र बनते हैं पर फिर उलट कर चित्र साधा ही आता है उसी प्रकार इंद्रियों पर जो प्रभाव पड़ता है वह उलटकर सीधा हो जाता है। प्रभाव परस्परा के कारण ऐसा होता है । दूसरी बात यह है कि दर्शन तो निर्विकल्पक है उसमें उल्टे सीधे आदि की कल्पना होती ही नहीं, यदि प्रभाव उल्टा पड़कर भी सीधे ज्ञान को पैदा करता है तो उस से कुछ बिगड़ता नहीं है। प्रश्न--ज्ञानको आपने कल्पना कहा है पर कल्पना तो मिथ्या होती है। . उत्तर-कल्पना होने से ही कोई असत्य नहीं हो जाता। जो कल्पना निराधार अथवा असत्याधार होती है वह असत्य कहलाती है। जिसको सत्य आधार है वह असत्य नहीं कहलाती । ज्ञानका आधाररूप दर्शन सत्य है। कल्पना अविसंवादिनी है इसलिये ज्ञानरूप कल्पना सिर्फ कल्पना होने से असत्य नहीं हो सकती । अनुमान उपमान आदि कल्पना रूप होने पर भी असत्य नहीं कहलाते ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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