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________________ उपयोगों का स्वरूप [ २१७ सम्बन्ध होने से आत्मरूप ही हैं । स्व और पर सापेक्ष शब्द हैं। जसे मन आत्मद्रव्य की अपेक्षा पर और इन्द्रियों की अपेक्षा स्व है, इन्द्रियाँ मनकी अपेक्षा पर और विषय ( घट पटादि ) की अपेक्षा स्त्र हैं । इस प्रकार आत्मा से लेकर विषय तक जो प्रभाव की धारा है उसमें विषय पर हैं और आत्मद्रव्य तथा विषय के बीच में जितने प्रभावित करण हैं वे स्व हैं । यहां स्वका अर्थ आत्मद्रव्य नहीं है । प्रश्न-कभी सिर में दर्द हो या और कहीं कोई वेदना मालूम हो तो इसे स्वसंवेदन समझ कर दर्शन कहना चाहिये । उत्तर-शरीर में ही दर्द क्यों न हो उसका असर जैसा मस्तिष्क के ज्ञान तन्तुओं पर पड़ेगा वैसा ही ज्ञान होगा । मस्तिष्क पर या स्पर्शन इन्द्रियपर पड़े हुए प्रभाव का संवेदन दर्शन है और उससे दर्द की कल्पना होना ज्ञान है । दूसरी बात यह है कि दर्द के अनुभव में कल्पना है इसलिये वह सविकल्पक ज्ञान है उसे निर्विकल्पक दर्शन नहीं कह सकते । दर्शन तो ज्ञेय वस्तु का अपने पर पड़ने वाले प्रभाव का संवेदन है । यहाँ ज्ञेय वस्तु अपने अंगोपांग हैं और घटपटादि की तरह यहाँ भी कल्पना से काम लेना पड़ता है इसलिये अंगोपांग भी पर हैं। शरीर बात दूसरी है और शरीर में रहनेवाली इन्द्रियाँ दूसरी, इन्द्रिय पर पड़नेवाले प्रभाव का संवेदन दर्शन है न कि अंगे. पर । जैसे अपनी ही आंख से अपना हाथ देखना दर्शन नहीं है उसी प्रकार अपनी इन्द्रिय से अपने अंगोंके दर्द का ज्ञान भी दर्शन नहीं हैं । एक बात और है शरीर के भीतर रहनेवाले विजातीय द्रव्य से दर्द आदि हुआ करते हैं वह द्रव्य शरीर का
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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