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________________ उपयोगों का वास्तविक स्वरूप [२१५ से हट जाने पर ही दर्शन हो गया दूसरे पर लगने की जरूरत ही न रही तब वहां विषय-विषयी-सन्निपात कहाँ रहा ? इसलिये श्री ब्रह्मदेव की यह बात तो बिलकुल ठीक न रही । फिर एक बात और है-विषयहीन चेतना का स्वप्रकाश क्या ? क्या लब्धिरूप चेतना का उपयोग ही स्वप्रकाश है जैसा कि श्री ब्रह्मदेव का कथन है। तब तो ऊपर श्री ब्रह्मदेव के कथन में जो दोष बताये गये हैं वे भी ज्यों के त्यों रहे। यदि उपयोग रूप चेतना का ग्रहण दर्शन है तब ज्ञान दर्शन से पहिले हो गया क्योंकि चेतना विषयग्रहण से उपयोगात्मक होती है और तब वह ज्ञान कहलाती है, तब दर्शन की जरूरत ही न रही । इसलिये सिर्फ चेतना को ग्रहण करना दर्शन है यह बात किसी भी तरह नहीं बनती है। आत्मद्रव्य को ग्रहण करना दर्शन है यह भी ठीक नहीं है क्योंकि आत्म द्रव्य इन्द्रियों का विषय ही नहीं है। इस प्रकार दर्शन का निर्दोष स्वरूप जब दुष्प्राप्य हो रहा है तब हमें नये सिरेसे इस विषय पर विचार करना चाहिये । इतना तो मालूम होता है कि दर्शन का सम्बन्ध विषय से अवश्य है उसके बिना दर्शन नहीं हो सकता परन्तु ज्ञान की तरह वह विषय को ग्रहण नहीं करता। हां, ज्ञान के पहिले वह विषय से सम्बन्ध रखनेवाले किसी पदार्थ को विषय अवश्य करलेता है जोकि विषय की अपेक्षा विषयी के इतने नजदीक है जिसे स्व कहा जा सकता है । इसी की खोज हमें करना चाहिये ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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