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पाँचवाँ अध्याय
३ निर्विकल्प है। ४ स्वग्रहण रूप है।
५ चार इन्द्रियों से पैदा होने वाले दर्शनों में एक ऐसी समानता है जो चक्षु दर्शन में नहीं पाई जाती ।
६ वह इन्द्रिय विषय सम्बन्ध के बाद होता है । ७ वह ज्ञान से जुदी अवस्था है।
८ दर्शन भी सामान्यविशेषात्मक वस्तु को ग्रहण करता है क्योंकि न तो वह मिथ्याज्ञान है न नय है ।
इससे यह पता लगता है कि जैन न्यायप्रन्थों में जो सत्तासामान्यग्रहण को दर्शन कहा जाता है वह ठीक नहीं है ।
कोई कोई कहते हैं “चेतनागुण जिस समय केवल अपना प्रकाश करता है चेतनागुण की उस अवस्था का नाम दर्शन है । ब्रह्मदेवने इसही को एक दृष्टान्त द्वारा भी स्पष्ट किया है कि जिस समय हमारा उपयोग एक विषय से हट जाता है किन्तु दूसरे पर लगता नहीं है उस समय जो चेतनागुण की अवस्था होती है उसे दर्शन कहते हैं।"
दर्शन की यह परिभाषा और भी बेहूदी है एक विषय से हटकर जब उपयोग दूसरे पर नहीं लगेगा तब उसको उपयोग ही क्यों कहेंगे? जो उपयोग नहीं वह दर्शनोपयोग कैसा ? अगर उपयोग मान भी लिया जाय तो उसके चक्षु अचक्षु आदि भेद किस लिये किये जायेंगे । दूसरे जैनाचार्य विषय विषयी के सन्निपात के बाद ही दर्शन मानते हैं वह ठीक जचता भी है पर एक उपयोग