SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाँचवाँ अध्याय • ज्ञान के भेद प्रचलित मान्यताएँ चतुर्थ अध्याय में मैंने ज्ञानके शुद्ध और सर्वोत्तम रू ( सर्वज्ञस्व ) की आलोचना की है। इस अध्याय में ज्ञानके सब भेदप्रभेदों की आलोचना करना है । ज्ञानके भेदप्रभेदों की शस्त्रचिकित्सा करूं, इसके पहिले यह अच्छा होगा कि मैं इस विषय में वर्तमान मान्यताओं का उल्लेख करहूँ । वे इस प्रकार हैं : [ क ] ज्ञानके दो भेद हैं- सम्यग्ज्ञान और मिथ्या - ज्ञान । सम्यग्ज्ञान के दो भेद हैं, प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के दो भेद हैं, सकल और विकल । सकल का कोई भेद नहीं, वह केवलज्ञान 1 है । निकल के दो भेद हैं, अवधि और मनः--पर्यय । परोक्ष के दो भेद हैं, मति और इहत । इस प्रकार सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद हैं । ये प्रमाण कहलाते हैं । [ख] मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान अगर मिथ्यादृष्टि के होते हैं तो मिथ्याज्ञान कहलाते हैं, इस प्रकार ज्ञान के कुल आठ भेद हैं । [ग] केवलज्ञान का वर्णन चौथे अध्याय में होगया । जो इन्द्रियमन की सहायता के बिना रूपी पदार्थों को स्पष्ट जाने वह
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy