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________________ १२६ ] चौथा अध्याय है १ । यदि मनोयोग उपचरित माना जाय तो ध्यान के लिये उसके निरोध की आवश्यकता ही क्या है ? जब वास्तव में मनोयोग है ही नहीं तो उसका निरोध क्या ? प्रश्न--केवली के ध्यान भी उपचरित होता है । वास्तव में ध्यान उनके नहीं होता; किन्तु असंख्य गुणनिर्जरा होती है इसलिये उपचार से ध्यान की कल्पना की जाती है । अगर वहाँ ध्यान न माने असंख्य गुणनिर्जराका कारण क्या माना जाय ? उत्तर-असंख्य गुणनिर्जरा वास्तविक होती है या उपचरित ? यदि उपचरित होती है तो मोक्ष भी उपचरित होगा। तथा उपचरित निर्जरा के लिये ध्यान की कल्पना की जरूरत क्या है ? अगर निर्जरा वास्तविक है तो उसका कारण ध्यान भी वास्तविक होना चाहिये । नकली ध्यान से असली निर्जरा नहीं हो सकती । यदि निर्जरा का कारण ध्यान के अतिरिक्त कुछ और माना जाय ते निर्जरा के लिये उपचरित ध्यान की आवश्यकता नहीं रहती है । इसलिये उनके वास्तविक ध्यात मानना चाहिये। प्रश्न--ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं किन्तु उपयोग की स्थिरता है । केवली का ज्ञान त्रिलोक त्रिकालव्यापी होनेपर भी स्थिर होता हैं इसलिये उनके ध्यान भी और सर्वज्ञता भी । उत्तर--अगर जैन शास्त्रों की यह मंशा हाती तो ध्यान का समय अन्तर्मुहूर्त न होता खासकर केवलियों के तो अन्तर्मुहर्त न स यदान्तर्मुहूर्त शेषायु-कस्त तुल्यस्थितिवद्यनामगात्रश्चभवतितदासर्व वाङ्मानसययोगं वादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकाय योगालम्बन सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिध्यानमास्कन्दितुमर्हति 1-~- सर्वार्थसिद्धि ९-४४ ।
SR No.010099
Book TitleJain Dharm Mimansa 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1940
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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